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( १२ ) पन्नत्ते, तंजहा-सपज्जवसिते चेव, अपज्जवसिते चेव, एवमणभिगहियमिच्छादसणेऽवि ।
___-ठाण० स्था २। उ १ । सू ८३ से ८५ ___टीका-'मिच्छादसणे' इत्यादि, अभिग्रहः--कुमतपरिग्रहः स यत्रास्ति तदामिप्रहिकं तद विपरीतम्-अनभिप्रहिकमिति । 'अभिग्गहिए' इत्यादि, अभिग्रहिकमिथ्यादर्शनं सपर्यवसितं-सपर्यवसानं सम्यक्त्वप्राप्तौ, अपयंवसितमभव्यस्य सम्यक्त्वाप्राप्तेः, तच्च मिथ्यत्वमात्रमप्यतीतकालनयानुवृत्त्याऽऽमिग्रहिकभिति व्यपदिश्यते, अनभिग्रहिक भव्यस्यसपर्यवसितमितरस्यापर्यवसितमिति ।"
अर्थात् मिथ्यादीन के दो भेद हैं--यथा--
(१) आभिग्रहिक-कुमत के स्वीकार करने को आ भिग्न हिक मिथ्यादर्शन कहते हैं तथा (२) अनाभिग्रहिक-अज्ञान रूप मिथ्यात्व को अनाभिग्रहिक मिथ्यादर्शन कहते हैं। दोनों प्रकार के मिथ्यादर्शन के दो-दो भेद हैं--(१) सपर्यवसित तथा (२) अपर्यवसित ।
अपर्यवसिप्तमिथ्यात्व-अभव्यसिद्धिक के होता है क्योंकि वे कभी भी सभ्यक्त्व को प्राप्त नहीं करेंगे तथा सपर्यवसित मिथ्यात्व भव्यसिद्धिक के होता है क्योंकि वे सम्यक्त्व प्राप्त कर वापस जब मिथ्यात्व को प्राप्त करते हैं तब उनका मिथ्यादर्शन सपर्यवसित कहा जाता है। अत: यह प्रमाणित हो जाता है कि मिथ्यात्वी अभव्यसिद्धिक भी होते हैं तथा भव्य सिद्धिक भी।
अस्तु मिथ्यात्व के आधार पर मिथ्यात्वी के नामकरण भी वैसे ही हो जाते है। कषायपाहुड में कहा है---
'मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयंदसणो होइ। ण य धम्म रोचेदि हुमहुरं खुरसं जहाजरिदो। तं मिच्छत जमसदहणं तच्चाण होइ अत्थाणं । संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं ति तं तिविहं ।
___-कषापा० भाग १२ । गा १०८। टीका अर्थात मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान धाला है । जैसे ज्वर से पीड़ित मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता है वैसे ही उसे उत्पन्न
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