________________
मनाभोगमिति, तत्र अमिग्रहेण इदमेव दर्शन शोभनं नान्यदित्ये. वंरूपेण कुदर्शनविषयेण निवृत्तमाभिग्रहिक, यद्वशाद्-कोटि कादिकुदर्शनामन्यतमं कुदर्शनं ग्रहणाति। तविपरीतमनभिग्रह, न विद्यते यथोक्तरूपोऽभिग्रहो यत्र तदनभिग्रह, यद्वशात्सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीत्येव मिषन्माध्यस्थ्यमवलंबते, तथा अभिनिवेशेषेन निवृत्तमाभिनिवेशिकं, यथा गोष्ठामाहिलादीनां सांशयिक, यदद्वशाद्भगवदह दुपदिष्टेष्वपि जीवादि तत्त्वेषु संशय उपजायते, यथा न जाने किमिदं भगवदुक्तं ---धर्मास्तिकायादि सत्यमुतान्यथेति, तथा न विद्यते आभोगः परिभावनं यत्र तदनाभोगं, तच्चैकेंद्रियादीनामिति ।।
अर्थात् मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं, यथा--आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, सांकयिक और अनाभोगिक ।
१-आभिग्रहिक मिथ्यात्व-तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपातपूर्वक एक सिद्धांत का आग्रह करना और अन्य पक्ष का खण्डन करना-आभिनहिकमिथ्यात्व है।
२-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व-गुण और दोष की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को बराबर समझना-अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है।
३-आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी उसकी स्थापना के लिए दुरभिनिवेश ( दुराग्रह-हठ ) करने को आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहते हैं।
४-सांशयिक मिटमात्व -इस स्वरूप वाला देव होगा या अन्य स्वरूप का ? इसी तरह गुरू और धर्म के विषय में संदेहशील बने रहने को सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं।
५-अनाभोगिक मिथ्यात्व-विचार शून्य एकेन्द्रियादि तथा विशेष ज्ञानविकल जीव को जो मिथ्यात्व होता है उसे अनाभोगिक मिथ्यात्व कहते हैं ।
संक्षेपतः स्थानांग सूत्र में मिथ्यादर्शन के दो भेद किये गये हैंमिच्छादसणे दुविहे पन्नत्त, संजहा-अभिग्गहियमिच्छादसणे चेव, अणभिग्गहियमिच्छादसणेचेव। अभिग्गहियमिच्छादसणे दुविहे
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org