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________________ ( १० ) सम्यगदर्शन और मिथ्यादर्शन के बोच को अवस्था सम्यग मिथ्यादर्शन (तीसरा गुणस्थान ) है। मिश्रप्रकृति ( शुद्ध-अशुद्ध ) की उदीयमान अवस्था में सम्यगमिथ्यादर्शन ( मिश्रमिथ्यात्व-सम्यक्त्व ) की उपलब्धि होती है। इसमें मिथ्यात्व का मन्द विपाकोदय रहता है। इसलिए यह दर्शन दोनों ( सम्बग दर्शन और मिथ्यादर्शन ) के बीच में होते हुए भी मिथ्यात्व के निकट है और मिथ्यात्व की क्रिया उसमें लगती है। इस तीसरे गुणस्थान की स्थिति अन्तमुहर्त की है। इस गुणस्थान से या तो प्रथम गुणस्थान-मिथ्यात्व प्राप्त करता है या सम्यक्त्व (चौथा, पांचवां, सातवां गुणस्थान ) प्राप्त करता है। इस गुणस्थानवी जीव नियमतः शुक्लपाक्षिकभव्य होते हैं। कतिपय दार्शनिक इस गुणस्थान में अनंतानुबंधी चतुष्क ( क्रोध-मान-माया-लोभ ) का अनुदय मानते हैं। गोम्मटसार (जीवकांड ) में कहा है सो संजमं ण गिण्हदि देसजमं वा ण बंधदे आउ सम्म वा मिच्छं वा पडिवज्जियमरदिणियमेण ॥२३॥ अर्थात् सम्यग-मिथ्यादर्शन में न देशसंयम ग्रहण होता है, न आयुष्य का बंधन होता है और न मृत्यु भी होती है । विपरीत, एकांत, संशय, विनय और अज्ञान --इन पांच लक्षणों के द्वारा भी मिथ्यादर्शन की पहचान होती है । मिथ्यादर्शनी अपने उक्त- गुणों के कारण विपरीतग्राही होता है। ४ : मिथ्यात्व के भेद-उपभेद मिथ्यात्व के धाभिग्रहिक आदि पाँच भेद हैं । पंचसंग्रह में चंद्रर्षि महत्तर ने कहा है भाभिग्गहियमणाभि-गहं च अभिनिवेसियंचेव । संसइयमणाभोगं मिच्छत पंचहा होइ । -पंचसंग्रह भाग २ । गा• २ - टीका-मलयगिरि-मिथ्यात्वं तत्त्वार्थाश्रद्धानरूपं पंचप्रकारं भवति, तद्यथा-आमिग्रहिकमनाभिग्रहिकमाभिनिवेशिकं सांशयिक Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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