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( 8 ) दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से जीवादि तत्त्वों में श्रद्धान होना मिथ्यात्व है अर्थात् जीवादि सत्त्वों में विपरीत श्रद्धा के होने को मिथ्यात्व कहते है । मिथ्यात्वी के मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय प्रतिक्षण रहता है। स्थानांग सूत्र के टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने कहा है -
"शुद्धाशुद्धमिश्रपुंजत्रयरूपं मिथ्यात्व-मोहनीयं, तथाविधदर्शनहेतुत्वादिति"
-स्थानांग ३।३।३९२ . अर्थात् शुद्ध, अशुद्ध, शुद्धाशुद्ध तीन पुजरूप मिथ्यात्त्व मोहनीय होता है क्योंकि तथाविध दर्शन मोहमीय कर्म का हेतु है। कषाय पाहुड में कहा है
मिच्छाइठ्ठीणियमा उवइट्ठ पवयणं ण सददि सदह दि असन्मावं उवइ वा अणुवइट।
कषापा० भाग १२। गा ५५ । पृ० ३२२ अर्थात् मिथ्या दृष्टि जीव नियम से जिनेश्वरदेव के प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता है तथा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद् भूत अर्थ का श्रद्धान करता है। कहा है
"विपरीत दृष्ट्यपेक्षया एव जीवो मिथ्यादृष्टिः स्यात् न तु अवशिष्टाऽविपरीत दृष्ट्यपेक्षया ।"
-जैनसिद्धांत दीपिका प्र.८३ अर्थात् जीव विपरीत दृष्टि की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि होता है किन्तु उसमें जो अविपरीत दृष्टि होती है उसकी अपेक्षा से नहीं।
व्यक्ति प्रधान परिभाषा में जिस व्यक्ति की दृष्टि मिथ्या है, उस व्यक्ति को मिथ्यादृष्टि कहा है । गुण प्रधान परिभाषा में मिथ्यात्वी की दृष्टि को मिष्यादृष्टि कहा गया है। मनोनुशासनम में युगप्रधान आचार्य तुलसी ने मन के छह प्रकारोंमें एक प्रकार 'मूढ़' कहा है।' जो मन दृष्टि मोह (मिथ्याहष्टि ) तथा चारित्रमोह ( मिथ्या आचार ) से परिख्यात होता है, उसे मूढ मन कहा है । १-मूढ विक्षिप्त यातायातशिलष्ट सुलीन निरुद्धभेदाद् मनः षोढा ।
-मनोनुशासनम प्र० २। सू.१ २. मनोनुशासनम् प्र० २। सू० २
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