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.. (८) को हो सम्मश्रखता है परन्तु किसी एक बोल को विपरीत रूप से श्रद्धता है तोह जो एक बोल को विपरीत श्रद्धता है, उस अपेक्षा से मिथ्यात्वी (दन मोहनीय कर्मका उदय ) -मिथ्याहष्टि कहा जायगा, परन्तु नव बोस की अपेक्षा से नहीं । मिथ्यात्वी के जितने तत्वों के प्रति अविपरीत श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह दर्शन मोहनीव कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है । मिथ्यादृष्टि को अनुयोगद्वार सूत्र में तथा नव पदार्थ की चौपाई में क्षयोपशम भाव में भी माना गया है। (क्ष्योपसमनिप्फन्ने ) मिच्छादसणलद्धी।
-अनुयोगद्वार सूत्र श्री मज्जयाचार्य ने दर्शन मोहनीय कर्मका क्षयोगशम पहले गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक स्वीकृत किया है। यद्यपि परस्पर मिथ्यात्वियों में दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम में तारतम्य रहता है। चूंकि कोई मिथ्यात्वी एक बोस को, कोई दो बोल को यावत् नव बोल पर सम्यग श्रद्धान करता है । परन्तु दर्शन मोहनीय कर्म का क्षयोपशम सब मिथ्यात्वी में माना गया है। यहाँ तक की निगोद के जीवों में दर्शन मोहनीय कर्म का आंशिक क्षयोपशम माना गया है। उस अविपरीत दृष्टि को सम्यगहष्टि का एक अंश माना गया है।
अज्ञान भाव भी विपाक प्रत्यायिक होता है, क्योंकि यह मिथ्यात्व के उदय से अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है। मिथ्यात्व भी विपाकप्रत्यविक होता है क्योंकि वह मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न होता है। इसी प्रकार कर्मोदयप्रत्ययिक उदयविपाकनिष्पन्न होते हैं ।२ ठाणांग के टीकाकार ने कहा है कि मिथ्या-विपरीतदृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहते हैं। पदार्थ की समूह की श्रद्धारहित दृष्टि-दर्शन-श्रद्धान जिसको होती है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। मोहनीय ( मिथ्यात्व मोहनीय ) कर्म के उदय से जिन प्रवचन में अरुचि होती है। कहा है कि सूत्रोक्त एक अक्षर के प्रति भी रुचि न होने से मिथ्यादृष्टि होती है।
१-मंदी सूत्र २-मिथ्यादर्शनं-असत्वार्थश्रद्धानमित्ति-सम. सम । टीका
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