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[ ३०८ ] किन्तु यह ध्यान में रहे कि वह बघन्य अनुभाग का भी बंध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बंध करता है। यदि अजघन्य अनुभाग का बंध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है।' • जब मिथ्यात्वी के कर्मों की विशुद्धि से तत्त्वों के प्रति अविपरीत श्रद्धा होती है तब सम्यत्वव की प्राप्ति होती है। मिथ्यातवी को सम्यक्त्व सामायिक भी विशेष ज्ञान तथा आवरण के भंग के तारतम्य से होती है। इस प्रकार भूषण स्थान आदि की सिद्धिरूप समत्व को प्रथम सामायिक-सम्यक्व सामाविक जानना चाहिए। मिथ्यात्वी भी यदि भावना मार्ग का आलंवन करता है तो वह उसे के लिए योग है । आचार्य हरिभद्र ने भावना को भी योग माना है। धर्म विषय का श्रवण करना भी योग माना गया है।
एक सद् गृहस्थ धार्मिक जीवन कैसे व्यतीत कर सकता है, योग को जीवन के व्यवहार में कैसे प्रयोग कर सकता है। इस पर हरिभद्र सूरि ने बहुत सारा चिंतन दिया। योग शतक में आपने कहा है
सद्धम्माणुवरोहावित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध। जिणपूय-भोयणविही संझानियमोबजोगंतु ॥ चियवंदण-जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयं ति। गिहिणो इमो वि जोगोकिं पुण जो मावणा मग्गो॥
___-योगशतक पलो० ३०॥३१ अर्थात् जिससे सद् धर्म में बाधा न हो, ऐसी गृहस्थ को आजीविका करनी चाहिए। निर्दोष दान देना चाहिए, वीतराग-पूजा करनी चाहिए, संध्या का नियम, साधुओं को स्थान, पात्र आदि देना चाहिए। धर्म विषय का श्रवण ये सब गृहस्थ के लिए योग हैं तो फिर भावना मार्ग तो योग है ही इसमें कोई संदेह नहीं।
(१) महाबंध पुस्तक ५। पृ० २६ (२) एयं विसेसनाणा आवरणावगमभेयओ चेव । इयं ददृव्वं पढमं, भूसणठाणाइपत्तिसमं ॥
योगशतक गा १८ (३) योगशतक गा ३१, ३२
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