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________________ [ ३०७ ] विमपेक्षते । कथम् ? भव्य जीवः पंचेन्द्रियः, समनस्कः पर्याप्तिपरिपूर्ण, सर्वविशुद्धः औपशमिकसम्यक्त्वमुत्पादयति । -सत्वार्थवृत्ति २ । ३ अर्थात् कर्म युक्त भव्य जीव संसार के काल में से बद्धपुदगल परिवर्तन काल शेष रहने पर औपशमिक सम्यक्त्व के योग्य होता है-यह एक काल लब्धि है। आत्मा में ( मिथ्यात्यो में ) कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति अथवा अन्य स्थिति होने पर ओपशमिक सम्यक्त्व ( मिथ्यावी ) नहीं प्राप्त कर सकता । xxxi भव्य, पंचेन्द्रिय, समनस्क, पर्याप्तक और सर्व विशुद्ध जीव ओपशमिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। यह तीसरी काल लब्धि है। पातंजल योग के टीकाकार व्यास ने कहा हैअवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्व धर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः। -पातञ्जलयोग-टीका अर्थात् अवस्थित द्रव्य के प्रथम धर्म के नाश होनेपर दूसरे धर्म की उत्पत्ति को परिणाम कहते हैं। अगर मिथ्यात्वी के किंचित भी शुम परिणाम नहीं होते तो वे कभी भी सम्यक्त्वी नहीं होते। द्रश्यों के निज-निज स्वभाव में वर्तने को परिणाम कहा है। जब मिथ्यात्वी के विभंग ज्ञान विशुद्ध लेण्यादि से उत्पन्न होता है तब यदि मिष्यात्यो जपन्य योग वाला हो, कषाय को मंदंता हो तो उसके जघन्य प्रदेश का बंध होता है। भगवंत भूतबलि भट्टारक ने कहा है - विभंगे अट्ठण्गं क० ज० ५० क० अण्ण० चदुगदि० घोडमाणज० जो अहविध बं० । -महाबंध चतुर्थ भाग अर्थात् विभंग बानो यदि जघन्य योग वाला हो तथा कषाय की मंदता हो तो वह जघन्य प्रदेश का बंध करता है। मिथ्यात्व के जघन्य अनुभाग का बंध करने वाला जीव अनंतानुबंधी चार कषाय का नियम से बंध करता है। (१) जैन पदार्थ विज्ञान में पुद्गल ब २।३० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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