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[ ३०६ ] प्रतिमासो हि यो देव विकल्पेन तु वस्तुनः । ज्ञानं तदष्टधा प्रोक्तं सत्यासत्यार्थभेदभाक् ।। मतियुक्तं श्रुतं सत्यं स मनापर्ययोऽवधिः । केवलं चेति सत्यार्थ सद्दृष्टेनिपंचकम् ॥ कुमतिः कुश्रुतज्ञानं विभंगाख्योऽवधिस्तथा । ज्ञानत्रयमिदं देव मिथ्यादृष्टिममाश्रयम् ॥
-ध्यानस्त्व श्लोक ४३ से ४५ अर्थात् शान से वस्तु का प्रतिभास होता है। सत्य-असत्यार्थ के भेद से ज्ञान के अष्ट प्रकार हैं। जिस में मिथ्यात्वी के मति-श्रुत विभंग-ये तीन प्रधान होते है।
पुग्य से मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वी सुख वेदते हैं उसका उपार्जन शुभ परिणाम से होता है। यपि सभी नारकी-देवों के भवप्रत्यय अवधि ज्ञान होता है। देवों और नारकियों के अवधिज्ञान का कारण भव ही नहीं है किन्तु कर्म का क्षयोपशम भी कारण हैं । सम्यग्दृष्टि देव और नारकियों के अवधि होता है और मिध्याहृष्टियों के विभंगाऽवधि ___अनादि मिध्याहष्ठि जीव के काल लब्धि आदि कारणों के मिलने पर उपतम होता है। श्रुतसागरसूरि ने कहा है
कर्म वेष्टितौ भव्यजीवोऽर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल उद्धरिते सत्यौपशमिकसम्यक्त्वग्रहणोचितो भवति । अद्ध पुद्गलपरिवर्तनाधिके काले सति प्रथमसम्यक्त्वस्वीकारयोग्यो न स्यादियः। एका काललब्धि रियमुच्यते xxx। तृतीयाकाललग्धिः कथ्यते-सा काललब्धि (१) शुभो यः परिणामः स्यादुभावपुण्यं सुखप्रदम् ।
भावायत्तं च यत्कर्म द्रव्यपुण्यमवादि सत् ॥५०॥
-ध्यानस्तव
(२) देवनारकाणामिति अविशेषोक्तावपि सम्यग्दृष्टिनामेव अवधिभ- पति मिथ्यादृष्टीना देवनारकाणामन्येषाच विभंगः कथ्यते ।
-तत्त्वावृत्ति १/२१
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