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बुद्धि आदि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं। प्रशापना के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कहा है
"मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः -- जीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितहत्पुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिस्तु स मिथ्यादृष्टिः ।" । ___ "ननु मिथ्यादृष्टिरपि कश्चित् भक्ष्यं भक्ष्यतया जानाति पेयं पेय. सया मनुष्यं मनुष्यतया पशु पशुतया ततः सकथं मिथ्यादृष्टिः? उच्यते, भणवति सर्वज्ञतस्य प्रत्यायाभावात् , इहहि भगवदहत्प्रणीतं सकलमपि प्रवचनार्थमभिवोचयमानोऽपि यदि तहगतमेकमप्यक्षरं न रोचयति तदानीयध्वेव मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञो प्रत्यायनाशतः।"
प्रज्ञापना सूत्र पद १८।१३४४ टीका अर्थात् जीव, अजीव आदि तत्त्वों में अयथार्थ प्रतीति अर्थात् मिथ्या (विपरीत ) विश्वास को मिथ्यादृष्टि कहते हैं। जिस प्रकार किसी व्यक्ति विशेष को शुद्ध वस्तु में पीत का बोध होता है, उसी प्रकार मिध्याहृष्टि को जीव, अजीव आदि तत्त्वों में विपरीत बोध होता है। अब प्रश्न उठता है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव भी भक्ष को भक्ष रूप में जानता है, पेय को पेय रूप में, मनुष्य को मनुष्य रूप में तथा पशु को पशु रूप में जानता है तब वह मिथ्यादृष्टि कैसे कहा जायेगा। इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार है-"सर्वज्ञ भगवान में उसका विश्वास नहीं है। इस प्रकार भी यदि वह अर्हत् प्रणीत सभी प्रवचनार्थ को सम्यग् समझता है, किन्तु उसमें से एक अक्षर भी उसे अच्छा नहीं लगता है तो वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि उसका सर्वज्ञ भगवान में विश्वास नहीं है।
स्थानांग सूत्र में ( दशवां स्थान ) मिथ्यात्व के निम्नलिखित दस बोल कहे गये हैं-निम्नोक्त दस बोलों को विपरीत श्रद्धने वाले मिथ्यात्वी कहलाते हैं। १-मिथ्यात्व अतत्त्वश्रद्धानं तदपि जीवव्यापार एवेति ।
-ठाण० २।१। ६० । टीका २-तत्र मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिर्जीवाऽजीवादिवस्तुप्रतिपतिर्यस्य भक्षितधत्त रपुरुषस्य सिते पीतप्रतिवत्, स मिथ्या दृष्टिः गुणा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरेतेषां शुद्ध यशुद्धि
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