________________
..
.
( ४ ) है पिस से बीच कुछ अंश रूप में उज्ज्वल रहता है। जैसे-जैसे क्षयोपशम होता है वैसे-वैसे जीव उत्तरोत्तर उज्ज्वल होता जाता है। इस प्रकार जीव का उज्य होना निचरा है। जीव के देश रूप उज्ज्वल होने को भगवान ने निर्जरा कहा है। ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियों में से दो का सदा क्षयोपशम रहता है, जिससे मिथ्यात्वी के दो अज्ञान सदा रहते हैं और जीव सदा अंश मात्र उज्वल रहता है। मिथ्यात्वी के कम से कम दो अज्ञान ( मति-श्रुत अज्ञान )
और अधिक से अधिक तीन अज्ञान (मति-श्रुत-विभंग अज्ञान ) रहते हैं । उत्कृष्टतः कुछ कम दस पूर्व के ज्ञान को भन सकता है। इतना उत्कृष्ट क्षयोपशम अज्ञान उसको होता हैं।
इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिथ्यात्वी के भी आत्मउज्ज्वलता मिलती है।
आगम में कहा है कि सम्यक्त्वी जीव भी अनेक गुणों को प्राप्त होकर भी सुसाधुओं के संग से रहित होने से दुर्दर की तरह मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होता है अतः मिथ्यात्वी साधुओं की संगति में रहकर नवीन ज्ञान सीखने का प्रयत्न करे । ज्ञाता सूत्र में कहा है
"संपन्नगुणोवि जओ, सुसाहु-संसग्गवजिओ पायं । पावइ गुणपरिहाणि, दद्दुरजीवोव्व मणियारो।।
-ज्ञातासूत्र श्रु ११ अ १३। सू ४५ वस्तुतः मिथ्यादर्शन-दर्शन लब्धि का एक भेद है' दर्शनलब्धि के तीन भेद है-सम्यगदर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि तथा सम्यगदर्शनलब्धि ।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि और अगुरु ( कुगुरु ) में गुरु बुद्धि रूप आत्मा के विपरोत श्रद्धान को 'मिथ्या दर्शन लब्धि, कहते हैं । अर्थात् मिथ्यात्व के अशुद्ध पुद्गल के वेदना से उत्पन्न विपर्यास रूप जीव परिणाम को मिथ्यादर्शन लब्धि कहते हैं।
३: मिथ्यात्वी की परिभाषा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में देव बुद्धि और अधर्म में धर्म
१-भगवती श८ । उ २ प्र ६२
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org