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________________ [ २६० . ] करता है।" (४) अन्तराय कर्म का विलय होता है, अतः वह यथार्थ ग्रहण (इन्द्रिय-मन के विषय का साक्षात् ) यथार्थ गृहीत का यथार्थ ज्ञान ( अवग्रह आदि के द्वारा निर्णय तक पहुँचना ) उसके ( यथार्थ ज्ञान ) प्रति श्रद्धा और श्रद्धेय का आचरण-इन सबके लिए प्रयत्न करता है-आत्मा को लगाता है, यह सब उसका विशुद्धि स्थान है । इसलिए मिथ्यात्वी को 'सुव्रती' और 'कर्मसत्य' कहा गया है।" __"सब जीवों का जाने बिना जो व्यक्ति सब जीवों की हिंसा का त्याग करता है, वह त्याग पूरा अर्थ नहीं रखता है, किन्तु वह जितनी दूर तक जानकारी रखता है, हेय को छोड़ता है, वह चारित्र को देश आराधना है। इसीलिए पहले गुणस्थान के अधिकारी को मोक्ष मार्ग का देश आराधक कहा गया है।"२ . -जन वर्शन के मौलिक तत्त्व भाग २, पृ० २४८, ४६ समा, मार्दव. आदि इस प्रकार के धर्म पापकर्म का नाश करनेवाले और पुण्य को उत्पन्न करनेवाले कहे हैं । द्वादशानुप्रेक्षा में कार्तिकेय ने कहा है एहे दहप्पयारा, पावकम्मस्म णासिया भणिया। पुण्णस्स य सजयणा, परं पुण्णत्थण कायव्वा ॥४०८॥ मिथ्यातवी साघुषों के निकट बैठकर नमस्कार महामंत्र के रहस्य को समझे। उसका जाप करे । कहा है नमिऊण असुर सुर गरुल-भुयंगपरिवं दिए गय किलेसे अरिहं सिद्धायरिय-उबमायं-सव्वसाहूयं । - -चंदप्रण्णत्ती गा २ अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु-इन्हें-असुर, सुर, गरुण, नागकुमार-व्यंतर देव नमस्कार करते हैं। नमस्कार महामंत्र-चतुर्दशपूर्व का सार है। यहाँ पर गृहस्थ को नमस्कार करने को नहीं कहा गया है। अतः १-सेन प्रश्नोत्तर उल्लास ४७ १०५ । २-स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्यारायतीत्यर्थः सम्यग्बोधरहितत्वात् । -~~-भग० ८.१० वृत्ति Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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