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[ २८8 ] सिद्धांत पक्ष में पहले मिथ्यात्वी क्षायोपशमिक सम्यगदशन प्राप्त करता है। ऐसी मान्यता है । कर्मग्रन्थ पक्ष में पहले औपशमिक सम्बगदर्शन प्राप्त होता है-यह माना जाता है। कतिपय आचार्य दोनों विकल्पों को मान्य करते हैं। कई आचार्य मायिक सम्यग्दर्शन भी पहलेपहल प्राप्त होता है-ऐसा मानते हैं। सम्यगदर्शन का आदि अनन्त विकल्प इसका आधार है।
जैन दर्शन परम अस्तिवादी है। इसका प्रमाण है-अस्तिवाद के पार अंगो की स्वीकृति । उसके चार विश्वास है-'मात्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद ।' भगवान महावीर ने कहा-"लोक-बलोक, जीव-अवीव, धर्मअधर्म, बंध-मोक्ष, पुण्य-पाप, क्रिया-अक्रिया नहीं है, ऐसी संज्ञा मत रखो किन्तु ये सब है, ऐसी संज्ञा रखो।
जब मिथ्यात्वी के क्रिया शुभ होती है तो शुभ कर्म परमाणु और वह अशुभ होती है तो अशुभ कर्म परमाणु आत्मा से आ चिपकते हैं।
भारतीय दर्शन के महान चिंतनकार मुनि श्री नथमलजी ने जैन दर्शन के मौलिक तत्व में कहा है
"मिथ्यात्वी में शील की देश आराधना हो सकती है। शील श्रुत दोनों की आराधना नहीं, इसलिए सर्वाराधना की दृष्टि से यह अपक्रांति स्थान है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में भी विशुद्धि होती है। ऐसा कोई जीव नहीं जिसमें कर्म विलय जन्य (न्यूनाधिक रूप में) विशुद्धि का अंश न मिले। उसका ( मिथ्यादृष्टि ) जो विशुद्धि स्थान है, उसका नाम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है।"
मिथ्यादृष्टि के (१) ज्ञानावरण कर्म का विलय (क्षयोपशम) होता है, अतः वह यथार्थ जानता भी है, (२) दर्शनावरण का विलय होता है अतः यह इन्द्रिय विषयों का यथार्थ ग्रहण करता भी है, (३) मोह का विलय होता है अतः वह सत्यांश का श्रद्धान और चारित्रांश तपस्या भी करता है। मोक्ष या आत्म-शोधन के लिए प्रयत्न भी (१) से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई।
-आयारो श्रप्त० १, अ १, उ१ । सू ५
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