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________________ [ २८८ ] भगवान ने कहा है कि कोरा शान श्रेयस एकांगी आराधना है। कोरा शील भी वैसा ही है । ज्ञान और शील दोनों नहीं, वह श्रेयस की विराधना है; आराधना है ही नहीं। ज्ञान और शोल-दोनों की संगति हो श्रेयस को सर्वाङ्गीण आराधना है। ___ बंधन से मुक्ति की ओर, शरीर से आत्मा की ओर, बाह्य दर्शन से अन्तर दर्शन की ओर जो गति है, वह आराधना है। उसके तीन प्रकार हैं (१) शान आराधना, (२) दर्शन आराधना (२) चरित्र आराधना । सम्यगदर्शन-तत्व रुषि है और सम्यगशान उसका कारण है ।' पदार्थ विज्ञान तत्व रुचि के बिना भी हो सकता है, मोह दशा में भी हो सकता है किन्तु तत्व रुचि मोह परमाणुओं की तीन परिपाक दशा में नहीं होती है। __ श्रद्धा अपने आप में सत्य या असत्य नहीं होती। तत्त्व भी अपने आप में सत्य-असत्य का विकल्प नहीं रखता। तत्त्व और श्रद्धा का संबंध होता है तब 'तत्व श्रद्धा' ऐसा प्रयोग होता है। तब यह विकल्प खड़ा होता है-श्रद्धा सत्य है या असत्य ? यही श्रद्धा को द्विरूपता का आधार है। चत्व का अयथार्थ दर्शन अयथार्थ रुचि या प्रतीति है, वह श्रद्धा मिथ्या है । इसके विपरीत तत्त्व की यथार्थता में जो रुचि या विश्वास है वह श्रद्धा सम्यग है। तत्त्व का तीसरा प्रकार यथार्थता और अयथार्थता के बीच होता है। तत्त्व का अमुक स्वरूप यथार्थ है, अमुक नहीं-ऐसी दोलायमान वृत्तिवाली श्रद्धा-सम्यग मिथ्या है । ____ अनादि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति अज्ञान कष्ट सहते-सहते कुछ उदयाभिमुख होता है, संसार परावर्तन की मर्यादा सीमित रह जाती है। दुःखाभिषात से संतप्त हो सुख की ओर मुड़ना चाहता है, तब उसे आत्म-जागरण की एक स्पष्ट रेखा 'मिलती है । वह रागढष की दुर्भेद्य ग्रथि के समीप पहुंचता है जिसे यथाप्रवृत्ति करण कहते है । तत्पश्चात् उस ग्रंथि को तोड़ने का प्रयास करता है । कभी सफल भी हो जाता है । नयि के भेदन होने पर उसे सम्यक्त्व को प्राप्ति हो • जाती है। (१) रुचिः सम्यक्त्वम , रुचिकारणंतु ज्ञानम् । ___----ठाणं स्था०१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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