________________
[ २८७ ]
(२) पहली बार सम्यगदर्शन प्रगट हुआ, उसकी अपेक्षा वह अनादिसांत है । (३) प्रतिपाति सम्यग्दर्शन- (सम्यग्दर्शन बाया और चला गया) की अपेक्षा वह सादिसांत है ।
मिष्यादर्शनी एक बार सम्बग् दर्शनी बनने के बाद फिर से मिथ्यादर्शनी बन जाता है | किन्तु अनंत काल की असीम मर्यादा तक वह मिथ्यादर्शनी ही बना रहता है अतः मिध्यादर्शन सादि अनंत नहीं होता । सम्यग्दर्शन सहज नहीं
होता । मिथ्यात्वी से सम्यग्दर्शन विकास दशा में प्राप्त होता है।
मिथ्यादर्शनी एक पुंजी होता हैं । दार्शनमोह के परमाणु उसे सघन रूप में प्रभावित किये रहते हैं । जैसे पुद्गलास्तिकाय नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है । वैसे मिथ्यात्वी अपेक्षा दृष्टि से नित्य भी है, शाश्वत भी है अवस्थित भी है । ऐसा न कभी हुआ है, न होता है, न होगा कि सभी मिध्यात्वी जीव से सम्यक्त्वी हो जायेंगे । सम्यक्त्वी जीवों से मिध्यात्वी ate अनंत गुणे अधिक हैं ।
मिथ्यात्वी पुद्गलों को ग्रहण करके, उन ग्रहण के किये हुए पुद्गलों से औदारिक- वैक्रिय तेजस - कार्मण शरीर रूप में; श्रोत्र द्रिय चक्षुरिन्द्रय- घ्राणेन्द्रिय रसेन्द्रिय- स्पर्शेन्द्रिय पाँच इन्द्रि रूप में; मनोयोग, वचनयोग, काययोग रूप में तथा श्वासोच्छास रूप में परिषत करता है |
-
मिपाख पुंज का संक्रमण मिश्र पुंज और सम्यक्त्व पुंज दोनों में होता है । जिस पुंष की प्रेरक परिणाम धारा का प्राबल्य होता है, वह दूसरे को अपने में संक्रांत कर लेती है । मिथ्यादृष्टि सम्यक- मिध्यात्व पुंष को मिध्यात्व पुरंज में संक्रान्त करता है । सम्यक्स्वी उसको सम्यक्त्व पुंज में संक्रांत करता है । मिश्र दृष्टि मिध्यास्व पुंज को सम्यक-मिष्यारंव पुरंज में संक्रमण कर सकता है । पर सम्यक्त्व पु ंड को उसमें संक्रांत नहीं कर सकता । मिश्र पुंज का संक्रमण मिध्यात्व और सम्यक्त्व- इन दोनों पंजों में होता है ।
1
(१) निश्यावस्थिताभ्यरूपाणि च । रुपिणः पुद्गलाः
(२) पुद्गल कोश पृष्ठ १२६
Jain Education International 2010_03
-
पुद्गल कोश पृष्ठ ११२
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org