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________________ [ २६१ ] मिथ्यात्वी इन पाँच पदों का नित्य-प्रतिदिन जाप करे। वीतराग-वाणी का रहस्य समझे। आगम में कहा गया है कि अविनीत, रसलोलुपी, बारम्बार क्रोध करने वाला व्यक्ति श्रुत की उपासना सम्यग प्रकार नहीं कर सकता है। ये तीनों व्यक्ति श्रुत के अयोग्य हैं। ये पूर्णतया श्रुत की आराधना नहीं कर सकते है अतः मिथ्यात्वी श्रुत और शील की उपासना करने के लिए विनयवान बने२, रस में गृद्धी न बने, क्रोध से दूर रहने का प्रयास करे । इन्द्रभूति जो वेदविद् धुरंधर विद्वान था परन्तु मिथ्यात्व आच्छावित था। भगवान महावीर को पाणी से प्रभावित होकर मिश्याल से निवृत्त होकर सम्यक्त्व ग्रहण किया। तत्पश्चात् भगवान से प्रवज्या ग्रहण की। आगे जाकर ये ही भगवान महावीर के प्रथम गणधर हुए । 'गौतम' नाम से भी प्रसिद्ध है। केवलज्ञान-केवलदर्शन भी उत्पन्न हुआ, उत्पश्चात् परम पद प्राप्त किया । भिक्षु यदि दुष्ट आचार वाला हो तो नरक से नहीं बन सकता, भिक्षुक हो अथवा गृहस्थ हो जो सुन्दर अर्थात निरतिचार व्रत का पालन करने वाला है वही देवलोक में जाता है। कहा है। "भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुब्बए कम्मई दिवं। -उत्त ।२२ जैसे मिथ्यात्वी के मोह-राग-द्वोष रूप अशुभ परिणाम होते हैं वैसे उनके चित्तप्रसाद-निमल चित्त भी होता है उसके शुभपरिणाम भी होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में कहा है मोहो रागो दोसो चित्तपसाहो ण जस्स भावम्मि। विज्जहि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो॥ ... -पंचास्ति० २/१३१ अर्थात जिसके मोह-राग द्वेष होते हैं उसके अशुभ परिणाम होते है। जिसके चित्त प्रसाद निर्मल चित्त होता है उसके शुभ परिणाम होते हैं । सुख की (१) सूरपण्णत्ती पाहुड़ा २० (२) विद्या विनयं ददाति-हेवोपदेश (३) कप्पसुत्त सूत्र १२६, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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