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________________ । २७८ । के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता है, देखता है । उस उत्पन्न हुए विभंगशान द्वारा यह जीवों को भी जानता है, मोर अजीवों को भी षानता है । इसके बाद वह विभंगशानी सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। उसके बाद श्रमणधर्म पर रुचि करता है, रुचिकरके चारित्र अंगोकार करता है, फिर लिंग. ( साधुवेश ) स्वीकार करता है। सब उस विभंग ज्ञानी के मिथ्यात्व पर्याय क्रमशः क्षोण होते-होते और सम्यगदर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह विभंग अज्ञान-सम्यगयुक्त होता है और शीघ्र ही अवधिरूप में परिवर्तित हो जाता है। अन्ततः केवलज्ञान को भी प्राप्त कर लेते हैं। ___ बागम पाठ में "ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स"-पाठ का उल्लेख है। ईहा-सम्यग अर्थ जानने के लिये सम्मुख हुआ; अपोह-अन्य पक्ष रहित धर्मभयान का चिंतन करना; मग्गणं-धर्म की आलोचना करना, गवेसणं-अधिक धर्म की आलोचना करना-ये सब निरपद्य अनुष्ठान हैं। विभंग ज्ञान को आवरण करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म है, अतः शानावरणीयकर्म का क्षयोपशम भी सद् अनुष्ठान है। इस प्रकार निरवद्य अनुष्ठान से अश्रुत्वा-बालतपस्वी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है, फिर उत्तरोत्तर आत्म-विकास करता हुआश्रमणधर्म स्वीकार कर केवल धान तथा केवल दर्शन को प्राप्त कर लेता है। इसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है । । कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वरूपावस्थानं मोक्षः अनसिद्धान्त दीपिका प्रकाश ५३६ भाचार्य भिक्षु ने अश्रुत्वा केवली का विवेचन करते हुए कहा है असोचा केवली मिथ्याती थकां रे, छठ सप कीयों निरंतर जाण रे। वले लीधी सूर्य सांझी आतापना रे, बांह दोनई ऊँची आण रे ॥३८॥ । (१) अनुयोग द्वार-क्षयोपशम भाव के विवेचन में । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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