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[ २७६ ] परकत रों भद्रीक ने वनीत , रे, उपसंत पणों घणोंछे तांहि रे। क्रोध मान माया ने लोभ पातला रे, मांन ने मदं लीयो तिण मांहि रे ॥३६॥
इन्द्री ने बस कर लीधी जांण ने रे, वले घणा छे गुण तिण माहि रे। इसरा गुणा सहीत तपसां करें रे, करमा ने पतला पाडें , ताहि रे ॥४०॥
इम करता एकदा प्रस्तावें तेहना रे, आया शुम अधवसाय परिणाम रे। वले चढती चढती लेस्या विसुध छेरे, विषय विकार तणी नहीं होम रे ॥४१॥
तदावी कर्म खयउपसम हुवां रे, करवा लागो ते सुध विचार रे। न्याय मारग री करतां गवेषणा रे, विभंग अनर्माण उपजें तिणवार रे ॥४२॥
जो थोड़ों जाणे विमंग अनर्माण सूरे, आंगुल रे असंख्यात में भाग रे। उतकष्टों जांणे में देखें तेह सू रे, असंख्याता जोयण सहंस रो भाग रे ॥४३॥
वले जाणे विभंगे अनर्माण सू रे, जीव ने अजीव तणो सरूप रे। पाखंडीयां ने जाण्यां पाडूआ रे, त्यां ने बूढता जाण्यां भवजल कंप रे ॥४४॥
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