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________________ [ २७७ ] "तस्स (असोच्चा) गं भंते ! छछ?णं अणिक्खित्तेणे तबोकम्मेणं उड्ढे बाहामओ पगिजिमय-पगिन्मिय सुराभिमुहस्स पायावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइमद्दयाए, पगइउवसंतयाए, पगइपयणुकोहमाण-माया-लोभयाए, मिउमद्दवसंपण्णयाए, अल्लीणयाए, भहयाए, विणीययाए, अण्णया कयावि सुभेणं अमवसाणेणं, सुभेणं परिणामेण, लेस्साहिं विसुज्ममाणीहिं-विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमेणं ईहा-ऽपोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पज्जइ । से णं तेणं विभंगणाणेण समुप्पण्णेण जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई जाणइ पासइ ; से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पण्णेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे, सपरिग्गहे, संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुझमाणे वि जाणइ, सेण पुवामेव सम्मन्त पडिवज्जइ, सम्मत्त पडिवज्जित्ता समणधम्म रोएइ, समणधम्म रोएत्ता चरित्त पडिवज्जइ, चरित्त पडिवज्जिता लिंगं पडिवज्जइ, तस्सणं तेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहिं परिहायमाणेहि सम्मदंसणपज्जवेहिं परिबड्ढमाणेहि परिवड्ढमाणेहि से विभंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिगहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ । भगवई श० ६ । उ ११ । स ३३ अर्थात् निरंतर छट्ठ-छट्ठ–बेले-बेले का तप करते हुए सूर्य के सम्मुख ऊंचे हाथ करके, आतापना भूमि में आतापना लेते हुए-उस अश्रुत्वा जीव (मिथ्यात्वी बीव) की प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, स्वभाव से ही क्रोध-मान-माया लोम के अत्यन्त अरुप होने से मृदु-मार्दष अर्थात प्रकृति की कोमलता से, कायभोगों में आसक्ति नहीं होने से, भद्रता और विनीता से, किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्धलेल्या एवं सदावरणीय (विभंगज्ञानवरणीय ) कर्मोके क्षयोपशम होने से ईहा-अपोह, मागंणा-गवेषणा करते हुए 'विभंग' नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। उस उत्पन्न हुए विभंगशान के द्वारा वह बघन्य अंगुल १-विभंगोऽवधिः स्थानीयः -जेन सिद्धान्त दीपिका प्र. २ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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