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प्रथम अध्याय
१ : मिथ्यात्वी -एक प्रश्न मिथ्यात्वी के आत्म विकास होता है या नहीं, यदि होता है तो कैसे होता है ? प्रश्न टेढा है। इस प्रश्न के पहले हमें यह विचार करना है कि मिथ्यात्वी के आत्म उज्ज्वलता पायी जाती है या नहीं ? विश्व में सिद्ध और संसारी के भेद से जीव के दो विभाग किये जा सकते हैं। सिद्ध जीव तो कर्मो से सर्वथा मुक्त होते हैं, अत: उनमें तो आत्मा की उज्ज्वलता का पूर्ण विकास पाया जाता है। परस्पर सिद्धों की आतम-उज्ज्वलता में किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं होता है । अर्थात् सर्व सिद्धों के आत्म-उज्ज्वलता पूर्ण रूप से विकासमान होती है, चूंकि उनके किसी भी कर्म का आवरण रूप परदा नहीं होता है, परन्तु संसारी जीव कर्मो के आवरण से ढके हुए होते हैं। संसारिक जीवों के परस्पर गुणों के विकास में, आत्म उज्ज्वलता में तारतम्य रहता है। इसी तारतम्ब को लेकर ही भगवान महावीर ने चतुर्दश गुण-स्थानों का निरूपण करना आवश्यक समझा। जिसमें मिथ्यात्वी को प्रथम गुणस्थान में रखा गया। यदि मिथ्यात्वी में किंचित् भी आत्म-उज्ज्वलता नहीं मिलती तो मिथ्यात्वी को प्रथम गुणस्थान में ही नहीं कहा जाता, क्योंकि गुणस्थान का निरूपण जीवों के गुणों अर्थात् बात्म-उज्ज्वलता को लेकर ही होता है।'
सामान्य व विशेष की दृष्टि से गुणों के दो विभाग किये गये हैं। सामान्य गुण अर्थात् चेतना गुण सब जीवों में समान रूप से मिलता है, यहाँ तक कि निगोद के जीवों में२ व सिद्धों के जीवों में परस्पर सामान्य गुण-चेतना गुण में किंचित् भी फर्क नहीं होता है। परन्तु विशेष गुण (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग, सुख-दुःख बादि ) परस्पर सिद्धों में समान रूप से होता है,
१-कम्मविसोहिमग्गणं पहुच्च चउदस जीवट्ठाणा पन्नता
-समवा० सम १४५ २-साधारण वनस्पति विशेष-सूक्ष्म वादर दोनों प्रकार के निगोद
होते हैं।
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