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________________ ( २ ) परन्तु सांसारिक जीव, जो अपने कृत कर्मों के आवरण के कारण बँधे हुए हैं अत: उनमें परस्पर विशेष गुणों में तारतम्य रहता है, परन्तु विशेष गुण सब जीवों में मिलेगा। जीव का लक्षण ही उपयोग बताया गया है जैसा कि भगवती सूत्र में कहा गया है(जीवत्थिकाए ) गुणओ उवओग गुणे । भग० २ । १० । १२८ अर्थात् षड द्रव्यों में जीवास्तिकाय गुण की अपेक्षा उपयोग गुण रूप है । चेतनामय व्यापार को उपयोग कहते हैं । 'उपयोग' शब्द ही आत्मा की उज्ज्वलता का द्योतक है क्योंकि उपयोग (ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग ) की प्राप्ति बिना कर्मों के क्षवोपशम तथा क्षायिक से नहीं होती है । वृद्धाचार्यों ने ज्ञानावरणीय तथा दर्शनाधरणीय कर्म के क्षयोपशम, क्षायिक से उपयोग का व्यापार स्वीकृत किया है। प्रत्येक जीव में यहाँ तक कि सूक्ष्मनिगोद में भी आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता अवश्यमेव मिलेगी, चाहे मात्रा में कम मिले या अधिक, परन्तु मिलेगी अवश्यमेव । यों तो सूक्ष्म निगोद में भी आत्म उज्ज्वलता में परस्पर तारतम्य रहता है। जैन ग्रन्थों के अध्ययन करने से यह भी ज्ञात हुआ कि सूक्ष्म निगोद का जीव, अपने आयुष्य को समाप्त कर प्रत्येक वनस्पतिकायरूप में उत्पन्न हुआ सत्पश्चात् वहाँ से अपने आयुष्य को समाप्त कर मनुष्य रूप में उत्पन्न हुआ। उस मनुष्यभव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गया ।' २: मिथ्यात्वी के आत्म उज्वलता का सद्भाव यदि जीवों में आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता नही मिलती तो जीव-अजीव रूप में परिणत हो जाता। अस्तु गुणस्थान का निरूपण ही नहीं होता। सूक्ष्म निगोद में भी प्रथम गुणस्थान पाया जाता है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए नंदी सूत्र में देवद्धिगणि ने कहा है __ "सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्धाडिओ जइ पुण सो वि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्त पाविज्जा सुट ठुवि मेह समदए होइ पभाचंदसूराणं" ॥७७॥ १-देखें-प्रज्ञापना मलय गिरि टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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