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________________ [ २३१ ] यदि मिथ्यात्वी निरवद्य क्रिया करता है, तो उससे वह कर्म चकचूर कर देता है । यदि कोई उस निरवद्य क्रिया को अशुद्ध कहता है तो उसकी श्रद्धा खोटी है । यदि अकाम निर्जरा को वीतराग देव को आक्षा के बाहर मान लिया तब तो असंही जीवों के व अभव्यों के ऊँचे उठने का प्रश्न-आत्मोत्थान का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि उनके सकाम निर्जरा बिलकुल नहीं होती। सिद्धान्त में असंज्ञी जोव-निगोदादि में अनंत शुक्लपाक्षिक-प्रतिपाती सम्यग्दृष्टि कहे गये हैं जो उत्कृष्टतः देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन (अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना काल देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन में होता हैपग्णवणा पद १८) के बाद अवश्य ही मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे। कतिपय निगोदादि के जीव जघन्यतः संख्यात वर्ष के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। उन असंजी-निगोद आदि के जीवों के अकाम निर्जरा होते-होते, फलस्वरूप आत्मा की अंशत: उज्ज्वलता होते-होते क्रमशः अकाम निर्जरा के द्वारा बारमविकास होते-होते ऊँचे उठते है। इस प्रकार अकाम निर्जरा होते होते कालान्तर में सम्यक्त्व को भी प्राप्त कर लेते हैं। यदि उनके पहले अकाम निर्जरा से कर्मों का क्षय नहीं होता तो वे जिस योनि में थे उसी योनि में रह जाते अर्थात् उनके क्रमशः आत्म-उज्ज्वलता का प्रपन नहीं उठता । जीव जो निम्नतर विकास से उच्चतर विकास को प्राप्त होता है चाहे किंचित भी ऊच्चतर विकास को प्राप्त हो वहाँ काम निजरा या सकाम निर्जरा अवश्यमेव हुई है। वह स्मरण रखने की बात है जिस प्रकार सम्यक्त्वी के अकाम निर्जरा तथा सकाम निर्जरादोनों प्रकार की निर्जरा होती हैं उसी प्रकार मिथ्यात्वी के भी उपयुक्त दोनों प्रकार की निर्जरा होती हैं । चूंकी कई-कई मिथ्यात्वी मोक्ष की अभिलाषा से सद्मनुष्ठान-शुद्ध पराक्रम करते हैं। आगे देखिये आचार्य भिक्षु ने ग्रन्थ रत्नाकर में पृष्ठ २५८ में क्या कहा है (१) यद्यपि असंशित्व काल में सम्यक्त्व नहीं होता है परन्तु संज्ञित्व को प्राप्तकर सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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