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________________ [ २३० ] शुद्ध पाचरण पराक्रम है उन निरषद्य आचरणों को लेकर श्री मज्जयाचार्य ने भ्रमविध्वंसनम् [१-११] में न्याय और हेतु से निर्जरा धर्म में होना सिद्ध किया है और कहा है कि उन निरवद्य आचरषों के द्वारा मिथ्यात्वी के कर्म-निर्जरा अवश्यमेव होती है तथा उसका अशुद्ध पराक्रम संसार का हेतु है जैसा कि सूयगडांग में कहा है जे याऽबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदसिणो। असुद्ध तेसिं परक्कंत, सफलं होइ सवसो ॥ -सूय० श्रु११ अ ८ गा २३ अर्थात् लोक में पूजित या महावीर समझे जाने वाले परन्तु अबुद्ध-अज्ञानी और असम्यक्षदर्शी हैं उनका अशुद्ध पराक्रम-संसार को वृद्धि करने वाला है । ____ अस्तु कर्मो की निर्जरा हुए बिना मिथ्यात्वी सम्यक्त्वी हो नहीं सकते-ऐसा आगम का वचन है। उत्तराध्ययन में मिथ्यात्वी की शुद्ध क्रिया को दृष्टिकोण को लेकर कहा है वेमायाहिं सिक्खाहिं जे गरा गिहि सुव्वया । उति माणसं जोणि, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ उत्तरा० अ ७ गा २० अर्थात जो मनुष्य ( मिथ्यात्वी मनुष्य ) गृहस्थ होते हुए भी विविध प्रकार की शिक्षाओं के द्वारा सुन्नत (प्रकृप्ति भद्रादि गुण ) वाले हैं। वे मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं क्योंकि प्राणियों के कर्म ही सच्चे हैं। इस विषय में श्री मज्जयाचार्य ने भ्रम विध्वंसनम् [ १.५ ] में सिद्ध किया है कि मिथ्यात्वी को निर्जराधर्म को अपेक्षा सुनती कहा जाय तो कोई अत्युक्ति महसूस नहीं होती। आचार्य भिक्षु ने भी मिथ्यात्वी की शुद्धि क्रिया को आशा के अंतर्गत ही स्वीकृत किया है । जैसा की आपने मिथ्याती री करणी री ढाल २ में कहा है--- जो निरवद्य करणी मिथ्यात्वी करै। ते पिण कर्म कर चकचूर ॥ तिण निरवद्य करणी नै कहै अशुद्ध छ । तिण री श्रद्धा में कुड़ मैं कूड़ ॥३६॥ -भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड १) पृष्ठ २६१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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