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[ २३२ ] "सीलें आचार करें सहीत छेरे । पिण सूतर ने समऋत तिरें नांहि रे ॥ तिणनें आराधक कह्यो देश थी रे । विचार कर जोवो हिया मांही रे ।। देश थकी तो आराधक कह्यो रे । पेहले गुणठाणे ते किण न्याय रे ॥ जो पेंइलें गुणठांणे ते असुध करणी हुवै रे । तो देश आराधक कहिता नांहि रे ॥
- मिध्यासी री करणी री चौपई-ढाल २
अर्थात् सम्यक्त्व रहित मिथ्यात्वी को ( शील सहित तथा श्रुत रहित ) - निर्जरा धर्म की अपेक्षा मोक्षमार्ग का देशाराधक कहा गया है । मिथ्यात्वी के विषय में कहा है
आगम में
जइ वि य णिगिणे किसे चरे । जइ वि य भुंजिय मासमंतस्रो ॥ जे इह मायादि मिङजई । आगंता गभादणंतसो ॥
-सूय० श्रु १ अ २। उ १। गा
यदि मिध्यात्वी महिने -महिने की तपस्या करते रहे, परन्तु माया-कपट का प्रश्रय लेता रहे तो भवरूपी समुद्र में अनंतकाल भटकता फिरेगा, गर्भादि के दुःखों की प्राप्ति होगी ।
यहाँ मिथ्यात्वी के मायाकपट के फल को बताया गया है कि उस मायाकपट के द्वारा वह अनंतकाल तक संसार में परिभ्रमण कर सकता है; परन्तु तपस्या को बुरी नहीं बताया गया है। उसको तपस्यादि के द्वारा गर्भादिक के दुःख नहीं होते हैं होते हैं माया कपट से । मायावी व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं हो सकता । तपस्या से हो उसकी आत्मा की विशुद्धि होती है । तपस्या शब्द ही आत्मा की उज्ज्वलता का द्योतक है संकेत करता है ।"
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(१) तपस्या कर्मविच्छेदात्मनैर्मत्य निर्जरा - जैन सिद्धान्त दीपिका प्र ४
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