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________________ [ २१५ ] कर्म ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कहा है तथाहि समुन्नतातिबहलजीवमूतपटलेन दिनकररजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपिनैकान्तेन तत्प्रभानाशः संपद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनीविभागाभावप्रसंगात्। एवमिहापि प्रबलमिथ्यात्वोदये काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिभवतीति तदपेक्षया मिथ्या दृष्टेरपि गुणस्थानसंभवः। -कर्मग्रन्थ २ टीका अर्थात अत्यन्त घोर बादलों द्वारा सूर्य और चन्द्रमा की किरणें तथा रश्मियों का आच्छादन होने परभी उसका एकांत तिरोभाव नहीं हो पाता । अगर ऐसा हो तो फिर रात और दिन का अंतर ही न रहे। प्रबल मिथ्यात्व के उदय के समय भी दृष्टि किंचित शुद्ध रहती है। इसीसे मिथ्यादृष्टि के भी गुणस्थान संभव होता है। प्रत्येक जीव के कुछ न कुछ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रहते ही है। मति ज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय कर्मों का किंचित् क्षयोपशम नित्य रहने से, उस क्षयोपशम के अनुपात से नीव कुछ मात्रा में स्वच्छ-उज्ज्वल रहता है। जीव की यह उज्ज्वलता निर्जरा है। नंदीसूत्र में मतियान और श्रुतज्ञान को तथा मति अज्ञान और श्रुतयवान को एक दूसरे का अनुगत कहा है।' जिस प्रकार सदोष स्वर्ण प्रदीप्त अग्नि द्वारा शुद्ध होता है, वैसे ही मिथ्यावी की तपाग्नि से विशुद्धि होती है। बाह्य और बाभ्यंतर तप रूप अग्नि के देवीप्यमान होने पर मिष्याती दुखेर कर्मों को भस्म कर देता है। कतिपय विद्वज्जनों की मान्यता है कि जिसके संवर नहीं है उसके सकाम निरा नहीं है। लेकिन संवर के बिना भी सकाम निर्जरा होती है। भगवान १-जत्थ आमिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थामिणिवोहियनाणं दोऽवि एयाई अण्णमण्णमणुगयाई। -नंदी० सूत्र २४ २-मा सकामा स्मृता जैनैर्या प्रतोपक्रमैः कता। अकामा स्वविपाकेन यथाश्वभ्रादिवासिनाम् । -धर्मशाभ्युक्यम् २१।१२३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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