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[ २१६ ] महावीर ने अभिनिष्क्रमण के पहले गृहस्थावास में साधिक दो वर्ष तक शोतोदकसचित्त जल का भोग नहीं किया । उस समय भगवान् चतुर्थ गुणस्थान में स्थित थे। चूँ कि चतुर्थ गुणस्थान में संवर नहीं होता है परन्तु निर्जरा-सकाम-काम दोनों हो सकती है। कहा हैअविसाहिए दुवे वासे, सीतोदं अभोच्चा णिक्खंते ।
-आया० श्रु । अ६। उ ११ ११ पूर्वाध टीका-शीलांकाचार्य-xxx 'अविसाहिए' इत्यादि अपि साधिके द्वे वर्षे शीतोदकमभुक्त्वाअनभ्यवहत्या पीत्वेत्यर्थः, अपरा अपि पादधावनादिकाः प्रासुकेनैव प्रकृत्या, ततो निकांतो यथा च प्राणातिपातं परिहृतवानेवं शेषत्रतान्यपि पालितवानिति । xxxi
अर्थात् भगवान महावीर ने कुछ अधिक दो वर्ष तक पानी पीने के लिए सचित्त जल का व्यवहार नहीं किया। टीकाकार ने कहा है कि अपरा-पैर वगैरह धोने के लिये भी प्रासुक जल का सहज उपयोग नहीं किया था। प्राणातिपात का परिहार किया तथा इसीप्रकार अन्य व्रतों का भो (सहज भाव से) पालन किया।
आवश्यक नियुक्ति के टोकाकार आचार्य मलयगिरि ने कहा है कि साधिक दो वर्ष तक भगवान महावीर ने प्रासुक ऐषणीय आहार ग्रहण किया, सचित्त जल का भोग नहीं किया। प्रासुक जल से सर्व स्नान नहीं किया, केवल लोकमर्यादा से प्रासुक जल से हस्त, पाद, मुख मात्र धोये । केवल निष्क्रमण महोत्सव के अवसर पर ही भगवान ने सचित्त उदक से स्नान किया। यावज्जीव विशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पालन किया । भगवान् नित्य कायोत्सर्ग करते, ब्रह्मचर्य में तत्पर रहते, स्नान करते, विशुद्ध ध्यान ध्याते । १- आट नि. गा ४५८-टीका २- कायोत्सर्ग घरो नित्यं ब्रह्मचर्यपरायणः । स्नानांगरागरहितो विशुद्धध्यानतत्परः ।
-त्रिश्लाका पर्व १० सर्ग गा १६७
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