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[ २१४ ] "तपस्या पिण अशुद्ध नहीं छै तेहणी रे जे तपस्या कर गृहस्थ ने देवै जताय रे ॥ ते पूजा श्लाघा रा अर्थी थकारे। सूयगडांग आठमध्ययने माय रे ॥"
-३०६ बोल को हुण्डी अस्तु अब प्रश्न यह रह जाता है कि अकाम निर्जरा वीतराग देव को मात्रा में है या नहीं ! “निर्जरा" शब्द ही आत्मा की उज्ज्वलता का द्योतक है, वह चाहे अकाम निर्जरा हो, चाहे सकाम निर्जरा हो । दोनों प्रकार की निर्जरा में परस्पर तारतम्य भाव हो सकता है। कर्म दोनों प्रकार की निर्जरा से कटते है । जैसा कि अनुकम्पा की ढाल में आचार्य भिक्षु ने कहा है
"निर्जरा की करणी निरमली, जिन आज्ञा में जाण रे । ते शुभ जोग निर्वद्य त्यां, पुण्य बंध पहिछाण रे ॥
-भिक्षग्रन्थ रत्नाकर ई० २ अनु० १४ अर्थात निर्जरा की निर्मल करणी जिन आज्ञा में जाननी चाहिए। वहाँ शुभ योग का प्रवर्तन होता है तथा शुभयोग निरवद्य है जिसमें पुण्य का भी बंध होता है । मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वी के जो तप से निर्जरा होती है उसे उपक्रम कृत निर्जरा भी कहते हैं।' माननीय पण्डित सुखलालजी की यह मान्यता है कि सकाम तप अभ्युदय को साघता है, और निष्काम तप निःश्रेयस को साधता है । जैन दर्शन के अद्भूत विद्वान मुनि श्री नथमलजी ने कहा है-- __ “धर्म हेतुक निर्जरा नवतत्त्वों में सातवाँ तत्त्व है। मोक्ष उसीका उत्कृष्ट रूप है। कर्म की पूर्ण निर्जरा ( विलय ) जो है, वही मोक्ष है, कर्म का अपूर्ण विलय निर्जरा है, दोनों में मात्रा भेद हैं, स्वरूप भेद नहीं है।"
-जैन दर्शन के मौलिक तत्व पृ० १४ ... (१) तपसा निर्जरा या तु सा चोपक्रमनिर्जरा।
-चंद्रप्रभचरित्रम् १८१११० पूर्वार्ध । (२) तत्वार्थसूत्र अ । सू ३ को व्याख्या
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