________________
[ २१३ ] के काल के भीतर मिथ्यात्व का उदय नहीं होता। परन्तु उपशमसम्यवस्व के काल के समाप्त होनेपर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है।
पब जीव मिथ्यात्व अवस्था को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तब उसके दर्शन मोहनीय ( मिथ्यात्व मोहका ) कर्म का बंध नहीं होता है।'
कहा जाता है कि ऐहिक या पारलौकिक सुख-सुविधा के लिए जो भी शुद्ध क्रिया की जाती है उससे सकाम निर्जरा नहीं होती, क्योंकि उसका लक्ष्य गलत है परन्तु अकाम निर्जरा आवश्यमेव होती है चूंकि क्षयोपशम निष्पन्न भाव प्राणी मात्र में मिलेगा। अकाम निर्जरा भी वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के बिना नहीं होती। नारकी तथा निगोद के जीवों के वीर्यान्तरायबालवीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से अकाम निर्जरा होती है। जैसा कि आचार्य भिक्षुने इसके विषय में नवपदार्थ की चौपई में कहा है।
अह लोक अर्थे तप करें, चक्रवादिक पदवी काम । केइ परलोक में अर्थ करें, नहीं निर्जरा तणा परिणाम केइ जस महिमा बधारवा, तप करें छे ताम । इत्यादिक अनेक कारण करें, ते निर्जरा कहीं छे अकाम ॥ --भिक्षुग्रन्थ रत्नाकर, खं० १ निर्जरा पदार्थ (ढाल-२) दोहा-५-६, १० ४४
अर्थात कई इसलोक के सुख के लिए, चक्रवर्ती आदि पदवियों की कामना से, कई परलोक के लिए तप करते हैं। इत्यादि अनेक कारणों से जो तप किया जाता है तथा जिस तप में कर्म क्षय करने के परिणाम नहीं होते यह अकाम निर्जरा कहलाती है।
श्री मज्जयाचार्य ने भी लक्ष्य के गला होने पर मिथ्यात्वी की तपस्याशुद्ध क्रिया को सापद्य नहीं माना है, जैसा कि आपने ३०६ बोल की हुडी में कहा है
१-सम्मामिच्छाइट्टी दसणमोहस्सऽबंधगोहोइ । वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ॥
-कषायपाहुडं गा १०२। भाग १२॥ पृ० ३१
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org