________________
[ 21 ] ले । विधिवत जैन मार्ग का सम्यक अवलम्बन करने से से यह संभावना अधिक बलवती हो जाती है। किन्तु यह समझना भूल होगी कि सभी जैनी सम्यक्त्वी होते हैं, और सभी जेनेतर मिख्यात्वी होते है।
प्रस्तुत पुस्तक में पंडितवर्य श्री श्रीचन्द चोरडिया ने 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' हो सकता है और कब-कब, कहाँ-कहाँ, किस प्रकार, किन-किन दिशाओं में और किस सीमा तक हो सकता है, इस प्रश्न का सैद्धान्तिक दृष्टि से सप्रमाण विस्तृत विवेचन किया है जिसके लिये वह बधाई के पात्र हैं। चोरडियाजो आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति पर निर्मित लेश्याकोश, क्रियाकोश आदि कोश ग्रन्थों के संयोजक एवं निर्माता विवर्य स्व. मोहनलालजी बांठियाँ के सहयोगी रहे हैं। उन्हीं के साथ १९७२ के पर्दूषण में अपने कलकत्ता प्रवास के समय हमारी उनसे भेंट हुई थी। उस समय उन्होंने यह पुस्तक लिखना प्रारम्भ कर दी थी और इच्छा व्यक्त की थी कि हम उसका आमुख लिखें। अब जब पुस्तक का मुद्रण आरम्भ हो गया तो उन्होंने पुनः आग्रह किया । अतएव इस आमुख के रूप में विवसित प्रपन पर अपने भी कुछ विचार प्रगट करने का अवसर मिला, जिसके लिये हम श्री चोरहियाजी तथा मोहनकालषी बंद, मंत्रीजैन दर्शन समिति और श्री मांगीलाल लुणियाजी उप-मन्त्री-जैन दर्शन समिति कलकत्ता के बाभारी है यह पुस्तक जैन पण्डितों को सोचने पर विवश करेगी, कतिपय प्रचलित भ्रान्तियों के निरसन में भी सहायक होगी और प्रबुद्ध जेनेतरों के समक्ष जैन दर्शन को सार्वभौमिकता, सार्वकालीनता, वैज्ञानिकता एवं युक्तिमत्ता को उजागर करेगी।
ज्योति निकुख चारबाग लखनऊ-१ दिनांक १२ जून, १९७७६.
-ज्योतिप्रसाद जैन
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org