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[ 20 ] समस्त तथोक्त जेन नामधारियों में एक भी सम्यग्दृष्टि न हो, भले ही वह श्रावक धर्म का व्यावहारिक पालन करता हो, व्रत भी ग्रहण किये हों अथवा गृहत्यागी साधु या साध्वी भी क्यों न हो।।
(४) यह भी संभव है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसने जैन धर्म का कभी नाम भी नहीं सुना, जैन शास्त्रों को पढ़ा या जाना भी नहीं, जैन साधना पद्धति का भी जिसे कोई परिचय नहीं, फिर भी वह नैतिक सदाचरण द्वारा एक बड़ी सीमा तक आत्म विकास कर ले तथा आत्म परिणामों की उज्ज्वलता के कारण सम्यक्त्व भी प्राप्त कर ले।
(५) एक द्रव्यलिंगी जैन मुनि, जो प्रायः पूर्ण श्रुत शानी हो सकता है, मुनि धर्म का भी निर्दोष पालन करता है, अपने आचरण एवं उपदेश से बम अनेकों को सन्मार्ग पर लगा देता है, अत्यन्त मन्द कषायी होता है, तथापि सम्यक्त्वी विहीन होने से मुक्ति नहीं पा सकता-अपनी तप-त्याग-संयम साधना के फलस्वरूप उच्च देवलोक तक ही पहुँच पाता है। उसी प्रकार किसी भी जैनेतर मार्ग की सम्यक साधना करने वाला धर्मात्मा, भक्त, साधु, सन्त, परमहंस या फकीर भी आत्म विकास करके द्रव्यलिंगी जैन मुनि की भांति उच्च देवलोक प्राप्त कर सकता है। और यदि संयोग से सम्यक्त्व प्राप्त कर ले तो कालान्तर में मोक्ष भी पा सकता है ।
इस प्रकार, जैन धर्म में किसी प्रकार की धार्मिक ठेकेदारी या एकाधिकार नहीं है। वह तो आरम विकास को सम्भावनाओं, रूपों, प्रकारों, सीमाओं आदि का सम्यक निरुपण करके उसके लिये सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय मार्ग का निर्देश कर देता है और घोषित करता है कि कोई भी प्राणी, यहाँ तक कि पशु-पक्षी या नारकी जीव भी कहीं हो, किसी परिवेश या परिस्थितियों में हो, उपयुक्त संयोगों एवं निमित्तों के मिलने अथवा स्वपुरुषार्थ द्वारा मिलाने से अपना आत्म-विकास कर सकता है। उक्त आध्यात्मिक विकास के फलस्वरूप यह भी सम्भावना है कि वह मिथ्यात्व भाव में से निकल कर सम्यक्त्व भाव में आ जाये, और तब उसी जन्म अथवा निकट जन्मान्तरों में मुक्ति, निर्वाण वा सिद्धत्व अर्थात् आत्मिक विकास. की घरमावस्था प्राप्त कर
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