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[ 19 ] जैनधम एक अत्यन्त उदार, वैज्ञानिक युक्तियुक्त, विवेकशील एवं विचारवान परम्परा है । तथापि व्यवहारों में प्रायः प्रत्येक नामधारी जैनी भी यही मानता, समझता और कहता है कि जैनों के अतिरिक्त अन्य सब मनुष्य मिथ्यात्वी एवं अधर्मी हैं।
सब तेरे सिवा काफिर, आखिर इसका मतलब क्या ?
सिर फिरादे इन्सान का, ऐसा खमते मजहब क्या ? बहुतों की तो यह स्थिति है
मुखालफीन को हम कह तो कह देते हैं काफिर ।
मगर यह डरते हैं दिल में ही न काफिर हो॥ वस्तुत: जो लोग धर्म तत्त्व; धर्म के स्वरूप और रहस्य से अनभिज्ञ होते हैं और धर्म के स्वयंभूत ठेकेदार बन बैठते हैं, वे ही ऐसी अनुदार एवं विवेकहीन मनोवृत्ति का परिचय देते हैं। ऐसा कदाग्रह यह कठमुल्लापन जैनधर्म और दर्शन की प्रकृत्ति के प्रतिकूल है। जैनदृष्टि तो इस विषय में सुस्पष्ट है और ऐसी विलक्षणताओं से सम्पन्न है जो अन्य किसी धार्मिक परम्परा में दृष्टि गोचर नहीं होती, यथा---
(१) जैन दर्शन आत्म तत्व की सत्ता को मानकर चलता है, और आत्म विकास को विभिन्न संभावनाओं एवं अवस्थाओं का सम्यक निरुपण करता है।
(२) आत्म विकास का ॐ नमः मिथ्यात्व अवस्था में ही होता है। वह अबुद्धिपूर्वक और आकस्मिक भी हो सकता है, जब कर्म बन्धन के सहसा ढीला पड़ जाने से परिणामों में उज्वलवा या निर्मलता आ जाती है। बुद्धिपूर्वक तब होता है जब कोई मिथ्यावी आत्मा अपने स्वरूप के प्रति स्वतः या परोपदेश से सजग हो जाती है और स्वपुरुषार्थ द्वारा नैतिक सदाचरण, संयम, तप, त्याग का मार्ग अपनाती है । मिथ्यात्वी जीव ही आत्म विकास करते हुए बब सम्यग दृष्टि को प्राप्त कर लेता है तो आत्मोन्नयन का मार्ग प्रशस्त एवं उर्ध्वगामी बन जाता है और अन्ततः परम प्राप्तव्य (परमात्मपद, मुक्ति या निर्वाण ) की प्राप्ति में समाप्त होता है।
(३) मात्र जैन कुल में उत्पन्न होने या जैन धर्म अंगीकार कर लेने से कोई व्यक्ति सम्यक्त्वी नहीं बन जाता । यह सम्भव है कि समय विशेष या क्षेत्र विशेष में
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