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। 18 ] -अर्थात् 'पो लोग विषय वासनाओं में फंसे हैं उनकी बात्मा देह मैं फैदी बनी घटती रहती है। इतना ही नहीं- ,
सज्जत है स्ट्ट को तने खाकी से मेल में ।
फितरत ने मस्त कर रक्खा है कैदो को जेल में । 'भौतिक शरीर के साथ एकत्व बुद्धि एवं आसक्ति के कारण यह आत्मारूप कैदी इस भव रूपी बन्दीगृह में भ्रमवश सुखमग्न रहता है।' परन्तु
नपस में उलझा है अकबर जो अभीदिल्ली दूर है।
राह के ये खुशनुमा मंजर हैं, मंजिल दूर है । "जब तक विषय-कषाओं में उलझा पड़ा हैं, भटकता ही रहेगा। मार्ग के लभावने दृष्य भव भटकन में ही सहायक होते हैं, लक्ष्य तो दूर है।" अतएव जबतक रूह पर गफलत से हुई का धब्बा लगा रहेगा, आत्मा मोहनिद्रा से जागृत नहीं होगा, उसमें स्व-पर भेदविज्ञान प्रगट नहीं होगा, वह ऐसे ही भटकता रहेगा, मिथ्याली अवस्था में ही बना रहेगा। इसलिए आवश्यकता इस बात को है कि पह, जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है, स्वयं से यह करना प्रारम्भ करदे-आत्म विजय के प्रयत्न में जुट जाय । जब मनूष्य का युद्ध स्वयं से प्रारम्भ होता है, तभी उसका मूल्य होता है।
अपने स्वरूप को भुले हुए, महाविष्ट, बहिर्मुखी, संसारग्रस्त व्यक्ति को हो मिथ्यादृष्टि या मिथ्यात्वो कहते हैं । जैन दर्शन में अभव्य और मिथ्यात्वी वैसे ही अपशब्द हैं जैसे की बाह्मण धर्म में नास्तिक अनार्य, विधर्मी और पापी, ईसाई मत में इनफाइडेल, हेरेटिक, एथिस्ट आदि और इस्लाम में काफिर जिम्मी आदि । प्रत्येक धर्म यह दावा करता है कि मनुष्य का कल्याण उस धर्म के पालन से हो सकता है और जो उस धर्म को नहीं मानता वह नास्तिक है, काफिर है, अधर्मी और पापी है, उसके इहलोक व परलोक दोनों नष्ट होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि एक धर्म का बड़े से बड़ा सन्त और धर्मात्मा अन्य सब धर्मों की दृष्टि में अधर्मी और पापो ही है। अतएव संसार में कोई व्यक्ति भी धर्मात्मा नहीं हो सकता आत्मोन्नयन नहीं कर सकता-सभी अधर्मी और पापी हैं ?
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