SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 17 ] श्रमण तीर्थकरों की अत्यन्त प्राचीन जैन परम्परा में 'धर्म' की जो परिभाषा-'वत्थुसुहाओ धम्मो' अर्थात् वस्तु स्वभाव का नाम धर्म है-दी गई है वह सर्वथा मौलिक है और धर्म तत्त्व के यथार्थ स्वरूप की द्योतक है । जो जिस चीज का सर्वथा परानपेक्ष निजो गुण है, वही उस चीज का धर्म है। आत्मा भी एक पदार्थ, तत्त्व या वस्तु है, और उसका जो परानपेक्ष स्वभाव है वही आत्म धर्म है। उक्त स्वरूप या स्वभाव की उपलब्धि का जो मार्ग या साधन है, वह व्यवहार धर्म है। सम्पूर्ण विश्व का विश्लेषण करने से उसके दो प्रधान उपादान प्राप्त होते हैं—जीव और अजीव । संसार में जितने भी जीव या प्राणी है, क्षुद्रा तिक्षुद्र जीवाणुओं, कीटाणुषों, जीव-जन्तुओं से लेकर अत्यन्त विकसित मनुष्य पर्यन्त, उनमें से प्रत्येक की अपनी पृषक एवं स्वतन्त्र आत्मा है । ये समस्त आत्माएँ भौतिक एवं आत्मिक विकास की निम्नतम अवस्थाओं से लेकर चरमतम अवस्थाओं में स्थित है। अपनी मौलिक शक्तियों, क्षमताओं एवं स्वभाव की दृष्टि से वे सब समान है, किन्तु भिन्न-भिन्न आस्माओं में उक्त शक्तियों, क्षमताओं और स्वाभाविक गुणों को अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न है। यह अभिव्यक्ति सूक्ष्म निगोदिया एकेन्द्री जीव में निम्नतम है और सिद्ध भगवान अथषा संसार से मुक्त हुये परमात्म तत्व में अधिकतम या पूर्ण है। अजीव, जा ; अचेतन या पुद्गल नाम का जो दूसरा तत्त्य है, उसके साथ गाढ सम्बन्ध रहने से और उसके कारण होने वाली क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप जीवात्मा देहधारी होकर अपने स्वभाव से भटकर जन्म-मरणरूप संसरण करता रहता है। एक पुरातन कवि ने 'पृष्ठेव्याधः करधृतशरैः सारमेयं समेतः' आदि पद्य में संसारी जीव की इस दशा का सुन्दर चित्रण किया है। आत्मारूपी गन्धमणि को नाभि में धारण किए हुए परन्तु उसके अस्तित्व से अनभिज्ञ भवविभ्रान्त जीव रूपी कस्तूरी मृग के पीछे काल रूपी कर व्याध बाण चढ़ाये तथा नाना रोगादि रूप शिकारी कुत्तों को साथ दोड़ रहा है, और वह मृग जन्ममरण रूपी विषम कासार में दिग्भ्रष्ट-पथभ्रष्ट हो भटक रहा है- अभी त्राणदायक निर्गमन मार्ग प्राप्त नहीं हुआ।' एक उशायर ने कहा है हवाए नफ्स के ताबे हैं जिनके जिस्म ऐ अकबर । उन्हीं की रूह रहती है बदन में मुज्म हिल होकर ॥ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy