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[ २०६ ] निरषद्य कर्तव्य करने की भगवान ने आज्ञा दी है, परन्तु सावध कर्तव्य की नहीं। देखिए, इसके विषय में श्रीमजयाचार्य ने प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध के नदी अधिकार के विवेचन में क्या कहा है
जो घणों घणों निरवद प्राक्रम करै। तो घणां घणां कटै छै कर्म ॥ पेंहले गुणठाणे दान दया थकी। कीयो छै परत संसार ॥
-प्रपनोत्तर तत्त्वबोष अर्थात् प्रथम गुणस्थान में--मिथ्यात्वी के प्रत रूप संवर नहीं होता है परन्तु निर्जरा धर्म की आराधना हो सकती है। दान, शील, तप, भावना रूप धर्म के द्वारा अनेक मिथ्यात्वी जीवों ने अपरिमित संसार से परीत्त संसार किया है। गोम्मटसार जीवकांड में सिद्धांत चक्रवर्षी नेमीचन्द्राचार्य ने कहा है
चद्गदिभवो सण्णी पज्जतो सुज्मगो य सागरो। जागारो सल्लेसो सद्विगो सम्ममुवगमई ॥६॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड अर्थात् भव्य, संकी, विशुद्धियुक्त, जागृति, उपयोग युक्त, शुभलेश्या और करणलब्धि से संपन्न आत्मा को सम्यगदर्शन की उपलब्धि होती है। चूकि सम्मगदर्शन यथार्थ में आत्म-जागरण है । आत्म-जागरण पात्म-गम्य है। ___ अतः मिष्यात्वी को सद् प्रयत्न के द्वारा सम्बगदर्शन की उपलब्धि हो सकती है। आचार्य भिक्षुने भिक्षुनय रत्नाकर भाग १, पृष्ठ २५८ में कहा है-.
जे खोटी करणी मिथ्याती करें रे। ते जिण आगना बाहिर जाण रे॥ असुध प्राक्रम तिणरो कह्यों रे लाल । तिणसू पापकर्म · लागें आंण रे ॥२॥.. असुध करणी रो असुध प्राक्रम कह्यो रे। ते विकलां ने खवर न काय रे ॥
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