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[ २०८ ] ते करणी छै निरजरा तणी रे लाल ॥ पुन्य सहज लागै छ आय हो ॥१॥ जे करणी करे निरजरा तणी रे लाल । तिणरी आगना दे जगनाथ हो॥ तिण करणी करतां पुन्य निपजे रे लाल । ज्य खाखलो गोहा हूवे साथ हो ॥२॥ पुन्य निपजै तिहाँ निरजरा हुवै रे लाल । ते करणी निरवद्य जाण हो । सावध सूपुन्य नहीं निपजे रे लाल ॥३॥
___-भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर ख. १, पुण्य पदार्थ की ढाल २ अर्थात् पुन्य शुभ योग से उत्पन्न होता है। शुभ योग जिन आक्षा में है। शुभ योग निर्जरा की करनी है। उससे पुण्य सहज ही आकर लगते हैं। जिस करनी से निर्जरा होती है, उसकी आज्ञा स्वयं जिन भगवान देते हैं। निर्जरा की करनी करते समय पुण्य अपने ही आप उत्पन्न ( संचय ) होता है जिस तरह गेहूँ के साथ तुष । वहां पुण्योपार्जन होगा वहाँ निर्जरा निश्चय ही होगी, जिस करनी से पुण्य की उत्पत्ति होगी वह निश्चय ही निरवद्य क्रिया होगी। सावध करनी से पुण्य नहीं होता।
अस्तु सावध करणी से पुण्य का बंध नहीं होता है। निरवध करणी को भगवान ने आज्ञा दी है, चाहे कोई भी करे। जैसा कि श्रीमज्जयाचार्य ने 'प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध में-स्थाद्वाद् अधिकार में कहा है :
"किन्हीं प्रकार हुवै नहीं, सावध मांही धर्म । किणही प्रकार बंधै नहीं, निरवद्य थी अघकर्म ॥ किणही प्रकार हुवै नहीं, जिन आज्ञा बिन धर्म । किण ही प्रकार नहीं बंध, आज्ञा थी अघकर्म ॥
-प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध गा० ४१॥४२ फिर श्रीमज्जपाचार्य ने प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध में क्या कहा है कि वीतराग देव की आज्ञा के बाहर को करणी में न धर्म होता है और न पुण्य
आशा बिन नहीं धर्मपुन्य, देखो आँख उधार -विजय सुर्याभाधिकार १३
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