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[ २०७ ] अर्थात केवल अधः प्रवृत्तकरण के प्रारम्भ के समय से ही मिप्यात्वी परिणाम विशुद्धि रूप कोटि को स्पर्श नहीं करता, किंतु इसके पूर्व ही अन्तर्मुहूर्त से लेकर अनंतगुणो विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ आया है। उत्तरोत्तर विशुद्ध अवस्था में लेश्या भी तेजो पद्म-शुक्ल-इन दोनों में से किसी एक विशुद्ध लेश्या होती है। आचार्य वीरसेन ने कहा है
मिथ्यात्वभगर्तादतिदुस्तरादात्मानमुद्धत मनसोऽस्य सम्यक्त्वरत्नमलब्धपूर्वमासिसादयिषोः प्रतिक्षणं क्षयोपशमोपदेशलब्ध्यादिमिरुपबृहितसामर्थ्यस्य संवेगनिर्वेदाभ्यामुपयुपरि उपचीयमानहर्षस्य समयं प्रत्यनन्तगुणविशुद्धिप्रतिपत्त रविप्रतिषेधात् ।
-कसायपाहुडं गा ६४ाटीका। पृष्ठ २००। भाग १२ अर्थात् जो अति दुस्तर मिथ्यात्व रूपी गर्त से छुटकारा पाना चाहता है जो अलब्ध पूर्व सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त करने का तीव्र इच्छुक है जो प्रति समय क्षयोपशमलब्धि और देशनालब्धि आदि के बल से वृद्धिंगत सामयं वाला है और जिसके संवेग और निर्वेद के द्वारा उत्तरोत्तर हर्ष में वृद्धि हो रही है उसके प्रति समम अनंत गुणी विशुद्धि अधःप्रवृत्तकरण के पूर्व भी तथा बाद में भी होती है।
उववाई सूत्र में सर्वश्रावकों को परलोक के आराधक कहे हैं। यह सम्बक्त्व तथा देश बत अपेक्षा से कहा गया है, परन्तु अव्रत की अपेक्षा नहीं । भगवती सूत्र (शतक ३, उ १, सू ७३) में तीसरे देवलोक के इन्द्र को आराधक कहा है। यह भी सम्यक्त्व की अपेक्षा से कहा है परन्तु अव्रत की अपेक्षा नहीं। इसी प्रकार उववाई सूत्र में मिथ्यात्वी को परलोक का अनाराधक कहा है-यह सम्यक्त्व की अपेक्षा है परन्तु निर्जरा धर्म को अपेक्षा नहीं। भगवती में मिथ्यात्वी को निर्जरा धर्म को अपेक्षा देशाराधक भी कहा है। आचार्य भिक्षु ने नव पदार्थ को चौपई में क्या कहा है, थोड़ा दृष्टिपात कीजिए
पुन्य निपजै शुभ जोग सू रे लाल । ते शुभ जोग जिन आज्ञा म्हाय हो ।
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