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[ २०६ ] भवरूपी ग्रन्यिका भेदन कर सकते हैं । अणुव्रत बुराइयों को दूर करने के लिए तीखी कुल्हाड़ी के समान है । श्री मज्जवाचार्य ने कहा है__ "प्रथम गुणठाणे शुक्ल लेश्या वते ते वेला आर्त रुद्रध्यान तो वज्यों छै अनें धर्मध्यान पावे छै।"
-भ्रमविध्वंसनम् अधिकार ११८ अर्थात् प्रथम गुणस्थान में जब शुक्ललेश्या का प्रवर्तन होता है सब पार्तध्यान और रोद्र ध्यान का निषेध किया गया है और धर्म ध्यान होता है । भगवान ने
अट्टरुहाणि वज्जित्ता, धम्म-सुक्काणि मायए ।
-उत्त० व ३४, गा ३१ अर्थात् मार्तध्यान और रौद्रध्वान को छोड़ कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान या। मिष्यावी में शुक्लध्यान नहीं होता है परन्तु धर्मध्यान हो सकता है अस्तु शुक्ललेषया का लक्षण धर्मध्यान भी है। अतः प्रथम गुणस्थान में शुक्ल. लेण्या भी होती है । तेगो और पद्म लेश्या के न होने का प्रश्न भी नहीं उठता है। तेजो आदि तीन विशुद्ध लेश्या से मिथ्यात्वी आध्यात्मिक विकास की भूमिका की उत्तरोत्तर वृद्धि कर सकता है।
बीवन विकास का 'अणवत' एक अच्छा उपक्रम है। युग प्रधान पाचार्य तुलसी ने 'अणुव्रत आन्दोलन भी चालू कर रखा है। मिथ्यात्वी के आत्मविकास में अणुक्त नियमावली काफी उपयोगी सिद्ध हुई है। मिथ्यात्वी धर्मध्यान का अधिकारी हो सकता है-ऐसा आगम के अनेक स्थान पर विवेचन मिलता है। मिष्यात्वो के जितने पदार्थों पर सच्ची श्रद्धा है यह गुण निष्पन्न भाव है तथा जितने अणुव्रतों को ग्रहण किया है तथा और भी अणुपूत नियमों को भी ग्रहण करने की भावना रखता है वह भी गुण निष्पन्न भाव है।
अधः प्रवृत्त करण की प्राप्ति के पूर्व भी मिथ्यात्वी के विशुद्धि होती है। कषायपाहुडं की चूर्णी में यतिवृषभाचार्य ने कहा है
पुज्वं पि अंतोमुहत्तप्पहुडि अणंतगुणाए विखोहीए विसुज्झमाणो आगदो।
-कसायपाहुडं गा ९४ा चूर्णी । मा० १२॥ पृ. २००
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