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________________ [ २०५ ] धर्म की अपेक्षा उसके प्रत्याख्यान-सुप्रत्याख्यान है। निर्जरा धर्म को अपेक्षा. उसके लिये 'अणुव्रतो' शब्द का व्यवहार किया जाय तो आगम सम्मत बात होगी। चूंकि प्रत्येक व्यक्ति छोटे अथवा बड़े, सूक्ष्म अथवा बादर -सब प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर सकते । अतः मिथ्यात्वी साघओं की संगति में रहने का अभ्यास करे । 'अणवत' के रहस्यको समझने का प्रयास करे । जीवन क्षण-भंगुर है, काया अस्थिर है, यौवन चंचल है--ऐसा समझकर सक्रियायें दत्तचित्त होकर करे । कतिपय मिथ्यात्वी भी सक्रियाओं के द्वारा क्रमशः आध्यात्मिक विकास करते रहते हैं। सुकृत्य-दुष्कृत्य-दोनों का फल भोगना पड़ता है, बिना भोगे छुटकारा नहीं है। जयाचार्य ने कहा है कि पुण्य-पाप, सुख-दुःख के कारण हैं । कोई दूसरी चीज नहीं है -ऐसा विचार करना चाहिये ।' मिथ्यात्वी के भो परस्पर अणुव्रत नियमों के ग्रहण करने में तरतमता रहती है । कतिपय मिथ्यात्वी गृहस्थाश्रम को छोड़कर आजोवन ब्रह्मचर्य व्रत की साधन करते हैं और विविध प्रकार के अणुव्रतों को ग्रहण करते हैं। मिथ्यात्वो का सद्-अनुष्ठानिक प्रयासआत्मोत्कर्ष का मार्ग है। जिनका विषय असत्य हैं उसे मिध्याज्ञान कहा जाता है। अध्यात्म शास्त्र में यह विभाग गौण हैं । यहाँ सम्यगचान से उसी ज्ञान का ग्रहण होता है जिससे आत्म का विकास हो और मिथ्याज्ञान से उसी ज्ञान का ग्रहण होता है जिससे आत्मा का पतन हो या संसार की वृद्धि हो। अस्तु मिथ्यात्वी कन्दर्प भावना, आभियोगिकी भावना, किल्विषो भावना, मोह भावना और आसुरी भावना-जो दुर्गति की हेतुभूत है और मरण के समय इन भावनाओं से जीव विराधक हो जाते हैं-छोड़ने का प्रयास करे । शुभ भावनाओं में अपना ध्यान केन्द्रित करे। जो मिथ्यात्वी जिन वचनों में अनुरक्त हो जाते हैं वे अणुव्रत के माध्यम से १- पुण्य-पाप, पूर्व कृत सुख दुःख ना कारण रे, पिव अन्य जन नहीं; एम करे विचारण रे । भावे भावना । -आराधना की आठवीं ढाल गा १ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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