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________________ [ २०४ ] प्रकाशित करने वाली देदीप्यमान है । अतः जगत का एकमात्र सर्वश्रेष्ठ मंगल, समस्त पापों के गाढ़ अंधकार को नष्ट करने वालो, सूर्य के समान यथार्थ वस्तु रूप को जिनेद्र भगवान् की वाणी सदा उत्कर्षशालिनी होकर मिष्यावी - साधुओं की संगति में रहकर श्रोता बने । भगवद् वाणी पर चिंतन करे । मिथ्यात्वी परिणामी है अतः वह अणुव्रत के माध्यम से सम्यक्त्वी भी हो सकता है । यद्यपि अभव्य के कर्म चिकने हैं, इसने चिकने हैं कि वे मिध्यात्व से 1 छुटकारा नहीं पा सकते। उसके कर्मों का मूल से नाश नहीं होता । वह उनका स्वभाव है | जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, जल का स्वभाव ठंडा है वैसे ही अभव्य में मोक्ष गमन की भयोग्यता है । फिर भी वह सक्रिया करने का अधिकारी है । देखा जाता है कि अभव्य सक्रिया से क्रमशः आध्यात्मिक विकास करते हैं । वे भी निर्जरा धर्म को अपेक्षा अणुव्रती हो सकते हैं । कतिपय अभव्य भी आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत को भी धारण करते हैं । 1 सिद्धांत ग्रन्थों के अध्ययन करने से मालूम होता है कि मिध्यात्वी भी अणुतव्र नियमों को ग्रहणकर संसार अपरीत से संसार परीत्त हुआ। मरण के समय काल प्राप्त होकर अच्छे कुल में मनुष्य रूप में अवतरित हुआ । अथवा देवत्व को प्राप्त किया ।" यदि सम्यक्त्वी भी अज्ञान, प्रमाद आदि दोषों का सेवन बहुलता से सेवन करते हैं तो वे सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो सकते हैं । अतः मिथ्यात्व प्रमाद को छोड़े, धर्म क्रिया दत्तचित होकर करे । विषय भोगों में आसक्त रहना, अशुभ क्रिया में उद्यम तथा शुभ उपयोग का न होना प्रमाद है । मिध्यात्वी यथाशक्ति प्रमाद से दूर रहने का अभ्यास करे । अणुव्रत के माध्यम से मिध्यात्वी स्थूल रूप क्रोध, मान, विजय प्राप्त कर सकता है । दोषों से छुटकारा पाने के लिये हमियार है । न्यायशास्त्र में जिस ज्ञान का विषय सत्य है कहते है । उपरोक्त अणुव्रत नियमों का मिथ्यात्वो प्रत्याख्यान कर सकता है । यद्यपि संवरधर्म की अपेक्षा उसके प्रत्याख्यान - दुष्प्रत्याख्यान हैं परन्तु शुद्ध क्रिया — निर्जर - १ - औपपातिक, भगवती, विपाक, ज्ञातासूत्र आदि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only माया, लोभ पर अणुव्रत एक तीव्र: उसे सम्यग्ज्ञान www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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