SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २०३ ] आत्मविकास के मार्ग पर चलने वाले सब लोग समान शक्ति पाले नहीं होते। कोई ऐसा दृढ़ होता है वो मन, वचन और काय से सब पापी को पोसकर एकमात्र आत्मविकास को अपना ध्येय बना लेता है। वह भागार धर्म से अनगार धर्म को स्वीकार कर लेता है। किन्तु गृहस्थाश्रम में विविध प्रकार के मनुष्य होते हैं-सम्बगह ष्टि भी होते हैं, मियादृष्टि भी और सम्बगमिष्यादृष्टि भी । कतिपय सम्बाहष्टि मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहते हुए पूर्ण त्याग का सामर्थ्य न होने पर भी त्याग की भावना से यथाशक्ति अहिंसादि पाँच अणप्रतों को स्वीकार करते हैं ; वे पंचम गुणस्थानवर्ती होते हैं। उनके प्रत्याज्यान संवर धर्म को अपेक्षा सुप्रत्यख्यान है क्योंकि वे सम्यक्त्वी हैं। तीसरे गुणस्थान की स्थिति मात्र अंतर्मुहूर्त की है। वे सम्बगमिथ्याहष्टि होते हैं वे किसी भी प्रकार का प्रत्याख्यान नहीं करते हैं परन्तु पूर्व प्रत्याख्यान की अपेक्षानिर्जरा धर्म की अपेक्षा प्रत्याख्यानी भी हो सकते है, संवर व्रत नहीं होता है। मिधाहष्टि जीव वैराग्यभावना से अहिंसादि अणुव्रतों को ग्रहण कर सकते हैं । यथा. १-क्रोधादिवश किसी को गाली न देना। २-जल में डुबोकर त्रस प्राणियों की हत्या न करना। ३-कूटतोल-कूटमापन करना । ४-स्त्री-पुरुष की मर्मभेदी बात प्रकाशित न करना । ५-किसी पर कूड़ा आल न देना । ६-असत्य बोलने का उपदेश न देना। ७ --चोर की चुराई हुई वस्तु न लेना। ८-चोर को चोरी करने में सहायता न देना। है-वस्तु में मेल-संभेल न करना-यथा-अच्छी वस्तु दिखाकर बिक्री के समय नकली वस्तु देना। १०-परस्त्री व वेश्या गमन न करना। ११-परिग्रह की मर्यादा उपरांत रखने का प्रत्याख्यान करना। १२-पैशून्य-चूगली न करना । १३-कटु वचन का व्यवहार न करना आदि । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy