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[ २०२ ] तब फिर आशा के बाहर की करणी में धर्म व पुण्य का बंध हो ही कैसे सकता है ? प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध में श्री मज्जयाचार्य ने कहा है
आज्ञापिण देवै नहीं, तिहाँ धर्म सणो नहीं अंस । २६ ते धर्म-पुण्य पिण को नहीं, धर्म जिन आज्ञा मांही।
-सुभद्राधिकार संवर ने बलि निरजरा, दोय प्रकारे धर्म । जिन आज्ञा में ए बिहुँ, ते थी शिवपुर पर्म ।। २७ ॥
-गोशालाधिकार तो सावध माही धर्म पुण्य, केम कहीजे तेह । १६ सावध पाप सहित मैं, धर्म पुण्य किम थाय। १७
-धर्मार्थ हिंसाधिकार जिन आज्ञा चित्त स्थाप रे, आज्ञा बिन नहि धर्म पुण्य सावद्य कार्य ताहि रे, गृही की. पिण पाप छै । अनुमोदै मुनिराय रे, प्रायश्चित आवै तम् ॥
प्रश्नोत्तर तत्वबोध अर्थात् जिन आशा के अन्तर्गत की सदनुष्ठाननिक क्रिया करने से धर्म तथा पुण्य होता है, परन्तु आशा के बाहर की क्रिया में नहीं। जब सावद्य क्रिया की अनुमोदना करने से मुनिराज को प्रायश्चित आता है तब आप सोचिये कि सावद्यअनुष्ठान में धर्म कैसे हो सकता है ? आचारांग अ० ४१४ में कहा गया है कि जो खिताशा को नहीं जानता है उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होनी महादुर्लभ है।
अस्तु मिथ्यात्वी अणुव्रतों को ग्रहण कर अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है । जिस प्रकार आगमों में' बालतपस्वी (मिथ्यात्वी का विशिष्ट तप) के लिये भावितात्मा अणगार का व्यवहार है उसी प्रकार छोटे-छोटे व्रतों का पालन करने वाले मिष्यावी के लिये अणुव्रती, शब्द का का व्यवहार क्यों नहीं होगा अर्थात् अवश्य होगा।
१-भगवती श• ३। उ ३. प्र. १०७
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