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________________ [ २०० ] देशथकी आराधक तो छै। पिण जाबक “किचिन्मात्र पिण आराधक न थी एहवी ऊँधी थाप करणी नहीं।" -भ्रमविध्वंसनम् अधिकार १११४। पृ० २५ अर्थात संवर की अपेक्षा मिष्यात्वो को आराधक नहीं कहा है परन्तु निर्जरा की अपेक्षा आराधक है। किंचित् भी मिथ्यात्वी आराधक नहीं है ऐसी ऊँधी स्थापना नहीं करनी चाहिए। अतः शुद्ध क्रिया की अपेक्षा सुब्रतो ३ : मिथ्यात्वी और अणव्रत आज इस भौतिकवादी युग में युगप्रधान आचार्य तुलसी ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-इन पाँच अणुव्रतों के बहुत सुन्दर नियमों की रचना की है । आपने विश्व को एक महान देन दी है। अणुव्रतों को प्रत्येक व्यक्ति ग्रहण कर सकता है। प्राणीमात्र के लिए ग्रहण योग्य नियम है, चाहे मिथ्यात्वी भी क्यों न हो । यदि मिण्यात्वी उन नियमों का यथाशक्ति पालन करे, उनके अनुसार आचरण करे तो मिथ्यात्वी अपनी आत्मा का विकास उत्तरोत्तर कर सकता है। कतिपय प्रमुख विद्वानों से सुना जाता है कि अणुव्रती संघ के नियमों के अनुसार कदम उठाया जाय तो व्यक्ति अपनी आत्मा का उत्थान जल्द ही कर सकता है। प्रश्न उठ सकता है कि यदि कोई मिथ्यात्वी अहिंसादि अणुव्रतोंके नियमों को ग्रहण कर, उनका पाला विधिवत् करता है तो उसे अणुवती नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अणुव्रती शब्द संवर की ओर संकेत करता है। प्रपन कुछ टेढ़ा है । पहले कहा जा चुका है कि यद्यपि मिथ्यात्वी के संघरप्रत समुत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सम्यक्त्व का अभाव है। लेकिन निरवद्य क्रिया से निर्जरा धर्म हो सकता है। मिथ्यात्वी के लिये इस निरवद्य क्रिया के दृष्टिकोण की अपेक्षा उत्तराध्ययन सूत्र में सुबती शब्द का व्यवहार हुआ है अर्थात् उसको शुद्ध क्रिया-सुव्रत है जिसे श्रीमउजवाचार्य ने भ्रमविध्वंस१----नस्थि चरितं सम्मत्तं, विहुण दंसणे उभयव्य ।। समत्तचरित्ताइ जुगवं, पुत्र च सम्मत्तं ॥ --उत्त. २८:२९ ____Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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