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________________ [ १६६ ] "प्रथम गुणठाणे मिध्यात्वी रा सुपात्र दान, शीलादिक ए पिण भला गुण आज्ञा माहीं कहिणां पड़सी ।" - भ्रमविध्वंसनम् १|११| पृ० २१ अर्थात् प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव - मिथ्यात्वी का सुपात्र दान देना, शीलादिक पालन करना – ये सब सम्यग् क्रिया - भगवान की आज्ञा में हैं । कहा है वली ते मिध्यात्वी ना दान शीलादिक अशुद्ध कह्या । तेइनो न्याय इम छै अशुद्ध दान कुपात्र ने देवो, कुशील ते खोटो आचार तप ते अग्नि नो तापवो, भावना ते खोटी भावना, भणवो ते कुशास्त्र नो-ए सर्व अशुद्ध है । ते कर्मबंधन रा कारण है पिण सुपात्र दान देवो, शील पालवो, मास खमणादिक तप करवो - भली भावनानु भाविवो, सिद्धांत नो सुणवो । ए अशुद्ध नहीं है एतो आज्ञा मांही है । -- भ्रमविध्वंसनम् अधिकार १, ११। पृ० २१, २२ अर्थात् यदि मिथ्यात्खी कुपात्र दान देता है, अनाचार का सेवन करता है, अग्नि का आरम्भ समारम्भ करता है, कंदर्प आदि अशुभ भावना का चितन करता है, कुशास्त्र का अध्ययन करता है आदि अशुद्ध पराक्रम है, कर्म बंधन के कारण हैं । इसके विपरीत सुपात्र दान देना, शील पालन करना, मासक्षमण आदि तप करना, अनित्यादि सद्भावनाओं से भावित रहना, श्रवण करना- - ये शुद्ध पराक्रम हैं, जिनाशा के अन्तर्गत की सक्रियाओं की अपेक्षा मिथ्यास्वी को सुव्रती कहा है । सूत्र - सिद्धांत का क्रिया हैं । इन यद्यपि सर्व आराधना तथा सम्यक्त्व की आराधना की अपेक्षा मिथ्यावी. को अनाराधक कहा है । परन्तु देश आराधना तथा निर्जरा धर्म की अपेक्षा आराधनक कहा है। श्री मज्जयाचार्य ने कहा है - "ज्ञान विना जे करणी करे ते देश आराधक छ । xxx ! सर्वकी तथा संवर आश्री आराधक न थी । अने निर्जरा आश्री तथा १ - उववाई सूत्र सूत्र ९६ से ११४ २ - भ्रमविध्वंसनम् अधिकार १।१३ १० २५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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