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________________ [ १६८ ] उसके प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्यास्थान कहे गये हैं जिसका समर्थन ३०६ बोल की हुडी में (१८१९) किया गया है । २-मिथ्यात्वी को शुद्ध क्रिया की अपेक्षा से उत्तराध्ययन सूत्र में ( 4.७१ मा० २०) सुव्रती कहा गया है अर्थात् उसका शुद्ध पराक्रम सुव्रत है, जिसका समर्थन भ्रमविध्वंसनम् के पहले अधिकार में श्री मज्जयाचार्य ने किया है। जो (मिथ्यात्वी)-गृहस्थाश्रम में रहते हुये भी विविध प्रकार को शिक्षाओं के द्वारा सुव्रत वाले अर्थात प्रकृति-भद्रता आदि गुण वाले हैं वे मनुष्य योनि को प्राप्त करते हैं क्योंकि प्राणी, सत्य कर्म वाले होते है अर्थात् जैसा शुभ या अशुभ कर्म करते हैं वैसा ही शुभ या अशुभ फल पाते हैं।' अतः मिथ्यात्वी को शुद्धक्रिया-निर्जरा धर्म की अपेक्षा सुव्रती कहने से 'किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं आती। श्री मज्जयाचार्य ने कहा है “वली मिथ्यात्वी ने भली करणी रे लेखे सुब्रती कहयो छे।" "मिथ्वात्वी अनेक मला गुणां सहित (प्रकृति भद्रपरिणाम, क्षमादि गुण ) ने सुव्रती कह यो। ते करणी भली आज्ञा मांही छै। अने जे क्षमादि गुण आज्ञा में नहीं हुवे तो सुव्रती क्यू कह यो। ते क्षमादि गुणांरी करणी अशुद्ध होवे तो कुब्रतो कहता। ए तो सांप्रत भली करणी आश्रय मिध्वात्वी ने सुबती कह यो छ xxx ते निर्जरा री शुद्ध करणी आश्रय कह यो छ। -भ्रमविध्वंसनम् अधिकार १५ अर्थात् मिथ्यात्वो को निरवद्य क्रिया की अपेक्षा सुव्रतो कहा गया है । मिथ्यात्वी के क्षमादि गुण-सुव्रत हैं। अस्तु निर्जरा की शुद्ध करणो की अपेक्षा-मिथ्यात्वी को सुव्रती कहा गया है। यदि मिथ्यात्वी शीलादिका आचरण करता है तो निर्जरा की अपेक्षा निमल प्रत्याख्यान है। कहा हैं - १-वेमायाहिं सिक्खाहि, जे जरा गिहि-सुवया । उति माणुसं जोणिं -कम्मसच्चा हु पाणिणो। - उत्त० अ ७, गा २० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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