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[ १६७ । दृष्टि रे शीलादिक थी घणीनिर्जरा हुवे छै। तिम प्रथम गुणठाणे पिण सुपात्र दान देवे, शील पाले, दयादिक भली करणी सू निर्जरा हुवे छै।"
- भ्रमविध्वंसनम् अधिकार ११० पृ०२० अर्थात् जैसे अव्रत सम्यगृह ष्टि गुणस्थानवी जीवों के त्याग बिना शीलादिक का पालन करने से व्रत रूप संवर नहीं होता; वैसे ही मिथ्यात्वी के व्रत रूप संवर कैसे हो सकता है । जैसे सम्यगृहष्टिके शीलादिकसे बहुत निर्जरा होती है। वैसे ही प्रथम गुणस्थान में भी सुपात्र दान देने से, दया आदि सम्यग करणी से निर्जरा होती है।
अतः मिथ्यात्वी के संवर नहीं होता है। परन्तु सक्रिया से निर्जरा होती है। निर्जरा की अपेक्षा उसके प्रत्याख्यान निर्मल हैं।
२: मिथ्यात्वी को सुव्रती कहा है - जैन दर्शन ज्याद्वाद, अपेक्षावाद या अनेकांतवाद को लेकर चलता है। जैन दर्शन किसी भी वस्तु को एक दृष्टि से नहीं देखता है, क्योंकि वस्तु को एक दृष्टिकोण से देखने से विविध प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं । वस्तु अनंत-धर्मात्मक होती है। जैनदर्शन कहता है कि यह भी हो सकती है परन्तु वह नहीं कहता है कि यह ही होगी। 'भी' और 'ही' के प्रयोगों की ओर थोड़ा दृष्टिपात कीजिये । 'ही' शब्द का प्रयोग करने से ऐकांतिक दृष्टिकोण का बोध होता है तथा 'भी' शब्द का प्रयोग करने से अनेकांतिक दृष्टिकोण का ।' ____ अस्तु, मिथ्यात्वी के विषय में आगमों में जो अनेक अपेक्षाओं से कहा गया है, उन्हें ज्याद्वाद की कसोटो पर कसकर देखिये ; जिससे आपको महसूस होगा कि मिथ्यात्वी भी धर्म की आराधना करने के अधिकारों माने गये हैं।
१-भगवती सूत्र (शतक ७ उ० २) में मिथ्यात्वीके प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान कहे हैं, क्योंकि उसके संवर-व्रत की निष्पत्ति नहीं होती। संवर व्रत की अपेक्षा से
१-प्रमाणनयतत्वलोकालंकार, ज्यायदीपिका, प्रकाश ३
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