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________________ [ १६४ ] प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे । सूयगडांग सूत्र में सम्यगदृष्टि का पराक्रम संसार का कारण नहीं माना है-बंधन का कारण नहीं माना है। कहा है जे य बुद्धा महामागा वीरा समत्तदंसिणो। सुद्ध तेसिं परक्कंतं अफलं होइ सव्वसो ॥ -सूयगडांग १८।२४ अर्थात् सम्यगदृष्टि के शुद्ध पराक्रम को निर्जरा का कारण माना गया है परन्तु संसार का कारण नहीं हो सकता है। यहाँ सभ्यगदृष्टि के अशुद्ध-पराक्रम का कपन नहीं किया गया है । जैसे मिथ्यादृष्टि का अशुद्ध पराक्रम सावध है वैसे ही सम्यग्दृष्टि का अशुद्धपराक्रम सावध है। जैसे सम्बगदृष्टि का शुद्ध पराक्रम निरवध है वैसे ही मिथ्यादृष्टि का शुद्ध पराक्रम निरवध है । मिथ्यात्वी को प्रथम गुणस्थान में रखा है । गुणस्थान निरवद्य है। श्री मन्त्राचार्य ने भ्रमविध्वंसनम् के प्रथम अधिकारी में कहा है__ "मिथ्याती प्रथम गुणठाणे अनेक सुलभ बोधि जीव सुपात्रदान देई, दया पालन कर, तपस्या शीलादि भली उत्तम करणी, शुभयोग, शुभलेश्या, निरवद्य व्यापार थी परित संसार कियो छै । ते करणी शुद्ध आज्ञा माहिली छ । ते करणी लेखै देशथकी मोक्ष मार्ग को आराधक कह यो छ।" -भ्रमविश्वंसम् अधि०१ अर्थात मिथ्यात्वी सुपात्र दान देकर, शील का पालन कर आदि निरवद्य अनुष्ठान से परीत्त संसार कर सकता है। भगवती सूत्र के २४ वें शतक मैं मियादृष्टि-मिथ्यात्वी के प्रशस्त अध्यवसाय तथा अप्रशस्त अध्यवसाय-दोनों माने गये हैं-यह निर्विवाद है कि प्रशस्त अध्यवसाय-निरवद्य अनुष्ठान हैं। मिष्यात्वी को सक्रिया यदि अध्यात्म का हेतु नहीं बनती तो उसके लिये अग्रिम विकास के द्वारा नहीं खुलते। वह हमेशा मिथ्यादृष्टि का मिथ्यादृष्टि ही बना रहता । लेकिन ऐसा नहीं होता । सबके लिए अध्यात्म विकास का द्वारा समान रूप से खुला हुआ है । अभव्य ( मिथ्याहृष्टि ) सद् क्रिया करता भो है तो वह भौतिक सुखों की उपलब्धि के लिये करता है। उसके मन में कभी भी Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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