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________________ [ १६५ ] मोक्षमंजिल को प्राप्त करने की भावना नहीं उठती । अस्तु अभव्य के लिये भी अध्यात्म विकास का रास्ता बंद नहीं है । सत्प्रयत्न करते समय उसके भी कम निर्जरण होता है । भव्य (मिच्यादृष्टि ) सद् प्रयत्न के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। _ अब प्रश्न उठता है कि मिथ्यात्वो किस प्रकार की सद् क्रिया-सदनुष्ठान करे कि जिससे उनकी आत्मा का विकास उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता रहे । सावध और निरवद्य के भेद से करणी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। सावध करणी पाप सहित होती है व निरवद्य करणी पाप रहित; सावध करणी को भगवान आज्ञा नहीं देते हैं। अब हमें यह चिंतन करना है कि मिथ्यात्वी को निरवद्य-शुद्ध क्रिया करने का अधिकार है या नहीं। जिस प्रकार अमृत को यदि अशानी भी पीयेगा तो वह फल दिये बिना नहीं रहता, उसी प्रकार निरवद्य क्रिया मिथ्यात्वो भी करेगा तो वह फल दिये बिना नहीं रहती। निरवद्य क्रिया संवर और निर्जरा के भेद से दो प्रकार को होती है । संवर का अर्थ है कर्मों के आने के द्वारों को रोकना व निर्जरा का अर्थ हैकर्मों को तोड़ना । संवर व्रत तो मिथ्यात्वो उपार्जन नहीं कर सकता है। चूंकि पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक संवरतत्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। मिथ्यात्वी को जोवादि नव तत्त्वों की सम्यग् रूप से जानकारी, सम्यग श्रद्धा हुए बिना संवर व को प्राप्ति नहीं होती है। आगमों में मिथ्यात्वो के प्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान कहे गये हैं। क्योंकि उनके संवर व्रत की प्राप्ति नहीं होती है मिथ्यात्वी यथाशक्ति दान-शोल तप-भावना-इन चार मार्गों को आराधना कर सकता है। जिससे आत्मा को शुद्धि होती है उसे धर्म कहते है-जैसा कि युग प्रधान आचार्य तुलसो ने जैन सिद्धांत दीपिका के सातवें प्रकाश में कहा है __ "आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः ॥२३॥ चूंकि तप धर्म की आराधना से मिथ्यात्वी के आत्म शुद्धि-आत्म उज्ज्वलता होती है इसी दृष्टिकोण को लेकर ही मिथ्यात्वी को मोक्ष मार्ग १-वृहत्कल्प उ १ तथा उ६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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