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। १६२ । अर्थात धर्म का मूल दर्शन (सम्यगदान) है । भगवती बाराषना में आचार्य शिवकोटि ने कहा है
मा कासितं पमाद सम्मत्त सव्वदुक्खणासयरे। सम्मत्तंखु पविट्ठा णाणचरणवीरबतवाणं ॥ णगरस्स, जह दुवारं, मुहस्स चक्खू, तरुस्स जह मूलं । तह जाण सुसम्मत्त णाणचरणवीरणतवाणं ॥
-भगवती बाराधना गा ७३५, ७३६ अर्थात् नगर के लिये द्वार का, चेहरे के लिये चक्षु का और दक्ष के लिये मूल का जो महत्व है, वही महत्व धर्म के लिये श्रद्धा का है। जान, दर्शन, वीर्य और तप की प्रतिष्ठा सम्यकत्व ही है। ____ जो मिथ्यात्वी करणलब्धि द्वारा प्रथम सम्यक्त्व के सम्मुख होता है उसके क्षयोपशम आदि चार लब्धियों का सद्भाव नियम से होता है । कहा है
खओवसम-विसोहिदेसण-पाओग्ग-सण्णिदाओ चत्तारि लद्धीओ करणलद्धि सव्वपेक्खाओ सूचिदाओ, ताहि विणा दंसणमोहोवसाभणाए पवुत्तिविरोहादो।
-कषायपाहुडं भाग १२ गा १४ टीका । पृ. २०६ अर्थात् मिथ्यात्वी के करणलब्धि, सव्यपेक्षक्षयोपशम, विशुद्धि देशना और प्रायोग्य संज्ञक-चार लब्धियों कही गयी हैं क्योंकि उनके बिना दर्शन मोह रूप के उपशम करने रूप क्रिया में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
जातिस्मरणज्ञान, धर्मश्रवणः देवर्षिदर्शन जिन-महिमादर्शन आदि के कारण भी मिथ्यात्वी-सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।'
कई मिथ्यात्वी अपने उसी भव में सक्रिया के द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्तकर चारित्र ग्रहण कर, केवलज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष पद को प्राप्त किया भी है। वर्तमान में कई मिथ्यात्वी सक्रिया के द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करने की प्रचेष्टा कर रहे हैं और भविष्यत काल में अनंत जीव सक्रिया के द्वारा सम्यक्त्व को
१-कषायपाहुडं भाग १२ गा ९७ टीका । पृ. ३०१
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