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________________ [ १८२ ] यद्यपि सम्बग्दर्शन के उपगूहन, स्थिति, करण, वात्सल्य और प्रभावना-ये सम्यगदर्शन के चार गुण पूर्षाचार्यों ने कहें हैं।' यत् किंचित् देशाराषक मिथ्यात्वी में भी उपयुक्त गुण मिलते हैं। लोकव्यवहारश और धार्मिक जन तप और तपस्वियों का बड़ा बादर करते है, मैं मासक्षमण आदि कठिन तप करता है वो भी ये लोग मेरा आदर नहीं करते है-इस विचारधारा को मिथ्यावी छोड़े ; प्रत्युत अकाम निर्बरा की जगह सकाम निर्जरा होगी। जैसे दुष्टपुरुष में सक्षता गुण पाना दुर्लभ है वैसे ही मिथ्यात्वी को बोषि की प्राप्ति होना कठिन है । मियात्वी तपस्या से पूर्वकाल में बंधे हुए कर्मों को निर्जरा कर हालसे है। सद्गुरु की अवज्ञा करना, निंदा करना, उनका आदर न करना, उनके विरुद्ध चलना-ये सब कुचेष्टायें मिम्मास्त्री को छोड़ देनी चाहिए। आध्यात्मिक विकास में सहयोगी गुणों का मिग्यात्वी अवलंबन लें । विनय से ऋजुगुण-सरलता प्रगट होती है; विनय लाघव गुण का मूल है। जो विनय नहीं करता है, लोक उसकी निर्भसेना करते हैं अत: अविनयी मनुष्य हमेशा दुःखी रहता है। विनयी की कोई भी निंदा-निर्भर्सना नहीं करता है, अतः वह सुखो है । मिथ्यात्वी विनय गुणों को प्रधानता दे। धर्म के आचरण से मिष्यात्वी शांति प्राप्त कर सकते हैं। मिथ्यात्वी उत्तरोत्तर शुभ परिणाम से कर्म पी वृक्ष को रस हीन बनाकर उसको धाराशाही कर देता है फलस्वरूप सम्बगदर्शन सम्मुख हो जाता है । स्वाध्याय से कर्मो का क्षम होता है।' पाचार्य भिक्षु ने मिन्माती री करणी री चौपई में कहा है - पेंहले गुणठाणे दान सांधाने देइ परत संसार कीधों के जीव अनंत । (१) उपग्रहणादिया पुत्वत्ता तह भत्तियादिया य गुणा । संकादिवजणं पि य णेओ सम्मत्तविणो सो ॥ मूलाराधना २१० (२) कम्ममसंखेन्जभवं खवइ अणुसमयेव उवउत्तो। अन्नयरम्मि वि जोए समायम्मि य विसेसणं ।। -उत्त० २६ । १८ की नेमीचन्द्रीय टीका में उद्धत Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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