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[ १८१ ] की सम्यग भाराधना से आत्मशुद्धि द्वारा क्रमिक विकास को भी प्राप्त हुआ । इस प्रकार मिथ्यात्वी सक्रियाओं से आध्यात्मिक विकास कर सकते हैं । आचार्य भिक्षु ने कहा है
सुलभ थी सुमुख नामें गाथापति रे, तिण प्रतिलाभ्या सुदत्त नामें अणगार रे । तिण परत संसार कीबों तिण दांन थी रे, विपाक सूतर में छे विस्तार रे। ए निरवद करणी में छे जिण आगना रे ॥२॥ समुख गाथापति ज्यूंदसां जणां रे, स्यां पिण प्रतिलाभ्या अणगार रे । त्या परत संसार कीयां सगला जणां रे, विपाक में जूबों जवों विस्तार रे ॥३॥ जब देवता बजाई थी देव दुन्दुभी रे, तिण दान रा कीयां घणां गुणग्राम रे, थे मिनष जन्म तणों लाहो लीयो रे, जस कीरत कीधी छे तिण ठाम रे ।।४।।
-भिक्ष ग्रन्थ रत्नाकर, (खण्ड १)
मिथ्याती री निर्णय री ढाल २ गा० २, ३, ४ अर्यात सुमुख गायापति, विजय कुमार, ऋषभदत्त गाथापति, धनपाल राजा मेघरथ राजा, धनपति राजा, नागदत्त गाथापति, धर्मघोष गाथापति, जितशत्र राजा पा विमलवाहन राजा ने ( मिथ्यात्व अवस्था में ) पणगार को देखकर घग्दन-नमस्कार किया तथा सुपात्र दान दिवा फलस्वरूप संसार परीत्त कर मनुष्य की आयुष्य बाँधी।
मिथ्यात्वी अपने दोषों की निन्दा करने का प्रयास करे, कमजोरियों को दूर करे। पश्चात्ताप करने से वैराग्य उत्पन्न होता है भारमगहीं से अपुरस्कार भाव ( गर्व भंग ) की उत्पत्ति होती है और आत्म-नम्रता प्राप्त होती है। १ यह बांकड़ी प्रत्येक गाथा के अन्त में है । २-विषागसूयं श्रु २१ ब १ से १०
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