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________________ [ १८० ] जो लेस्या परिणाम मला हुता नही रे, तो किणविध पामत विभंग अनर्माण रे । इत्यादिक कीयां सूहुवों समकती रे, अनुक्रमें पोहंतो छ निरवांण रे ॥४६॥ पहले गुणठाण मिथ्याती थकां रे, निरवद करणी कीधी छे ताम रें। तिण करणी थी नींव लागी छे मुगतरी रे, ते करणी चोखी ने सुध परिणाम रे ॥२०॥ भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर खण्ड १ पृ. २६२ भगवती सूत्र में ( शतक ८ उ १.) में कहा है-बालतपस्वी 'देसाराहए' देशाराधक होता है। सम्यग शान-सम्यग दर्शन के न होने से स्वल्प कर्मा को निर्जरा उसके भी होती है। मिथ्यात्वी संमतियों के निकट बैठे, धर्म सुने, धर्म पर श्रद्धा रखने का अभ्यास करे। यदि मिथ्यात्वी संपत्तियों-साधुषों को देखकर वंदन-नमस्कार करता है तो वह नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है और उच्च गोत्र कर्म को बांधता है। भद्रनन्दी ने अपने पूर्व भव में-विजयकुमार के भव में मिथ्यात्व अवस्था में युगबाह तीर्थकर को वंदन-नमस्कार किया । बड़ी विशुद्ध भावना से उन्हें आहार दिया फलस्वरूप उसने उच्च गोत्र कर्म का बंधन किया, नीच गोत्र कर्म का क्षय किया तथा संसार परीत्त कर मनुष्य की बायुष्य बांधी। वहां की भवस्थिति पूरी करने के बाद उस सुपात्र दान के प्रभाव से बह ऋषभपुर नगर में धनावाह राजा की सरस्वती रानो की कुक्षी से उत्पन्न हुआ। भवनम्दी नाम रखा गया । कालान्तर में उसने भगवान महावीर से पंचाणवतिक गृहस्थ धर्म भी स्वीकार किया । तत्पश्चात् भगवान के निकट दीक्षा भी ग्रहण की। गृहीत संयमव्रत १-भद्रनन्दी कुमारे xxx पुषभवपुच्छा । महाविदेहे वासे पुण्डरीगिणी गरी। विजयकुमारे । जुगबाहू तित्यंगरे पडिलाभिते । मणुस्साइए बद्ध इहं उप्पन्ने । विवागसूर्य च २ ब २ । सू. १ ____Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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